पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पे दचके सटता है बदन से बदन- पसीने से लथपथ छूती है निगाहों को कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच-सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है?
कुली मजदूर हैं बोझा ढोते हैं खींचते हैं ठेला धूल-धुआँ भाप से पड़ता है साबका थके-मांदे जहाँ-तहाँ हो जाते हैं ढ़ेर सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे में बैठ गए हैं इधर-उधर तुमसे सट कर आपस में उनकी बतकही सच-सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे में ये तो बस इसी तरह लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस-कोस की सच-सच बतलाओ अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ? घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है?
-नागार्जुन
साभार-अपने खेत में
|