मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै। कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकैं।। रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै। मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै।।
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खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहीं दीजै। देखत ही बनि आवै भलै रसखन कहा है जौ बार न कीजै।। ज्यों ज्यों छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै। त्यों त्यों छबीलो छकै छबि छाक सों हेरै हंसे न टरे खरो भीजै।।
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फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है। नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।। सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है। कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।।
- रसखान
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