भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 
लड़कपन  (काव्य)     
Author:गयाप्रसाद शुक्ल सनेही

चित्त के चाव, चोचले मन के, 
वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के। 
चैन था, नाम था न चिन्ता का, 
थे दिवस और ही लड़कपन के॥ 

(2) 
झूठ जाना, कभी न छल जाना, 
पाप का पुण्य का न फल जाना। 
प्रेम वह खेल से, खिलौनों से, 
चन्द्र तक के लिए मचल जाना॥

(3) 
चन्द्र था और, और ही तारे, 
सूर्य भी और थे प्रभा धारे। 
भूमि के ठाट कुछ निराले थे, 
धूलिकण थे बहुत हमें प्यारे॥ 

(4) 
सब सखा शुद्ध चित्तवाले थे, 
प्रौढ़ विश्वास प्रेम पाले थे। 
अब कहाँ रह गयीं बहारे वे, 
उन दिनों रंग ही निराले थे॥ 

(5) 
सूर्य के साथ ही निकल जाना, 
दिन चढ़े घूम-घाम घर आना। 
काम था काम से न धन्धे से, 
काम था सिर्फ खेलना खाना॥ 

(6) 
फिर मिला इस तरह नया जीवन, 
पुस्तकों में पड़ा लगाना मन।
मिल चले जब कि मित्र सहपाठी, 
बन गया एक बाग़ बीहड़ बन॥ 

(7) 
भार यद्यपि कठिन उठाना था, 
किन्तु उद्योग ठीक ठाना था। 
हौसले से भरा हुआ मन था, 
और दिन, और ही ज़माना था॥ 

(8) 
अब दशा कहाँ रही मन की, 
फ़िक्र है धर्म, धाम, तन, धन की। 
एक घूँसा लगा गयी दिल पर, 
याद जब आ गयी लड़कपन की॥

-गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

 

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश