भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 
श्रीमती सुक्लेश बली से डॉ. सुभाषिनी कुमार की बातचीत (विविध)     
Author:सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

फीजी में हिंदी शिक्षण का अलख जगाती हिंदी सेवी श्रीमती सुकलेश बली से साक्षात्कार


“हिन्दी से घबराइए नहीं। आप जैसे हिंदी फिल्में देखते हैं, गाने गुनगुनाते हैं वैसे हिन्दी भाषा को अपने दिलों में उतार कर देखिए”- श्रीमती सुकलेश बली

गुरूमाता पं. सुकलेश बली का जन्म 1 अगस्त, 1947 को जालंधर पंजाब में हुआ। वे भारत से बी.ए, बी.एड और एम.ए की शिक्षा हासिल करने के बाद, डॉ. राजेन्द्र बली से शादी कर, सन् 1973 में फीजी द्वीप में आ बसी। श्रीमती बली जी फीजी में हिंदी भाषा शिक्षा में अग्रणी महिला शिक्षिकाओं में से एक हैं। उन्हीं के मार्गदर्शन में युनिवर्सिटी आफ फीजी में हिंदी की शिक्षा स्नातक और पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर शुरू हुई। पण्डिता सुकलेश बली, ‘आर्य रत्न’ सवेनी लौटोका में रहती हैं। उनका हिंदी भाषा शिक्षण और वेद प्रचारक का अनुभव बहुत ही व्यापक है। फीजी में हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के संबंध में उनके विचार बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने अपने जीवन के 42 साल हिंदी शिक्षण में लगा दिए। फीजी में हिंदी शिक्षा के उत्थान के लिए आपको कई सम्मानों से सम्मानित किया गया है जैसे फीजी समिति पुरस्कार, भारतीय संस्कृति संवर्धन परिषद, आर्य रत्न, हिंदी परिषद फीजी द्वारा Living Legend Award आदि। कहानी, आलेख लेखन के अतिरिक्त पण्डिता सुकलेश बली की रूचि कविती लेखन में अधिक है। उनकी ‘ये मेरा फीजी’, ‘ए देश के नवजवानों!’, ‘फीजी दिवस’ आदि प्रमुख कृतियाँ हैं। अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे अब अपना समय वैदिक शिक्षण में व्यतीत कर रही हैं।
आप हमें अपने बचपन और प्रारंभिक शिक्षा के बारे में कुछ बतलाइए।

मेरा जन्म 1 अगस्त, 1943 जालंधर, पंजाब में हुआ था। यह भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐतिहासिक दौर था। मैं आपको बतलाना चाहती हूँ मेरा जन्म एक शणार्थी शिविर में हुआ था। मेरा परिवार लाहोर से आए थे। फिर वहाँ से हम मुमबई चले गए। मेरी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दयानन्द बालिका विद्यालय में हुई। मुझे बचपन से यज्ञ करना और मंत्र उच्चारण करना अच्छा लगता था और इसके साथ-साथ हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति अधिक रुचि रही है। मुझे प्रेमचंद, शरतचंद, रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियाँ, उपन्यास और कविताएं पढ़ने का बहुत शौक रहा है। हमारे घर में ‘चंदा मामा’ साप्ताहिक पत्रिका आना आवश्यक था। इसके अलावा ‘नवनीत’, ‘सरिता’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ आदि पत्रिकाएं हमारे घर में आती थीं। इन्हें पढ़ने के लिए मैं और मेरी भाभी में लड़ाई हो जाती थी कि मैं पहले पढ़ूँ या वो। हिन्दी के साथ-साथ कक्षा 11 तक मैंने संस्कृत की भी शिक्षा हासिल की जो वेद के मंत्र उच्चारण में सहायक सिद्ध हुईं। कक्षा 11 करने के बाद, मैं मुंबई विश्वविध्यालय में चली गई जहाँ मैंने बी.ए. किया। बी.ए. में मेरा जो विषय था वह इतिहास और हिन्दी था। इतिहास में मास्टर्स किया लेकिन इसके साथ-साथ हिन्दी की अलग से परिक्षाएँ देती रही हूँ जैसे साहित्य रतन।

कृपया आप हमें अपने कार्य क्षेत्र के विषय में बतलाइए।
मैंने भारत में 1971 से 1973 तक उच्च विद्यालय में पढ़ाना शुरू किया। शादी के बाद सन् 1973 जून में मैं फीजी आ गई। 1974 जनवरी से मैंने डी.ए.वी. गल्स, डी.ए.वी. बोइस और भवानी दयाल स्कूल में पार्ट-टायम शिक्षका के रूप में हिन्दी पढ़ाना शुरू किया। सूवा के इन स्कूलों में पढ़ाने के बाद मैं पति डॉ. रजेन्द्र बलि के ट्रांसफर होने की वजह से बा शहर आ गई। 1975 से मैंने डी.ए.वी. कॉलेज बा में पढ़ाना शुरू किया। मैंन सन् 1975 से लेकर 1995 तक डी.ए.वी. कॉलेज बा में हिन्दी विषय पढ़ाती थी। फिर सन् 1996 में मैं पंडित विष्णु देव मेमोरियल कॉलेज, सवेनी लौटोका आ गई। फिर मुझे सूवा जाना पड़ा जहाँ मैंने आर्य प्रतिनिधि सभा के स्कूलों में पढ़ाया। 2003 से 2009 तक मैंने सूवा में डी.ए.वी. गल्स कॉलेज में पढ़ाया है। इस तरह मुझे कई सेकेंड्री स्कूलों में हिंदी पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ। इस बीच मैं युनिवर्सिटी आफ दा साउथ पॉसफिक, सूवा में पार्ट टाइम हिंदी ट्यूटरिंग भी करती थी, जहाँ मैं 100 लेवल और 200 लेवल के फाउंडेशन कोर्स भी पढ़ाती थी। 2009 में 60 वर्ष की आयु में मैंने अवकाश ग्रहण कर लिया। इसके बाद सन् 2008 में मैंने युनिवर्सिटी ऑफ फीजी में हिन्दी विभाग की अध्यक्षता की और हिंदी प्राध्यापिका का पद संभाला।

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