भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।

हिन्दी का पुराना और नया साहित्य (विविध)

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Author: यज्ञदत्त शर्मा

मानव-जीवन का समस्याओं के साथ-ही-साथ साहित्य चलता है। जीवन में जिस काल के अंतर्गत जो-जो भावनाएँ रही हैं उन-उन कालों में उन्हीं भाव- नाओं से ओत-प्रोत साहित्य का भी सूजन हुआ है। प्रारम्भ में मानव की कम आवश्यकताएं थीं, कम समस्याएं थीं। इसीलिए साहित्यिक विस्तार का क्षेत्र भी सूक्ष्म था। वीरगाथाकाल में वीर-गाथाएँ लिखी गई, भक्ति-काल में साहित्य का क्षेत्र कुछ और व्यापक हुआ, विकसित हुआ, भक्ति के भेद हुए और अनेकों धाराएँ प्रवाहित हुईं। निर्गुण-भक्ति, प्रेमाश्रयी-शाखा, कृष्ण-भक्ति, राम-भक्ति और अन्त में सब मिलकर श्रृंगार की तरफ़ चल दिये। एक युग-का- युग शृंगारी कविता करते और नायक-नायिकाओं के भेद गिनते हुए व्यतीत हो गया, न समाज ने कोई उन्नति की और न राष्ट्र ने। फिर भला साहित्य में प्रगति कहाँ से आती ! साहित्य अपने उसी सीमित क्षेत्र में उछल-कूद करता हुआ झूठे चमत्कार की ओर प्रवाहित होता चला गया। भक्ति-कालीन रसात्मकता रीति-काल में नष्ट हो गई और वह प्रणाली आज के साहित्य में भी ज्यों-की-त्यों लक्षित है।

आज के नवीन युग में साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है। केवल शृंगार अथवा भक्ति के क्षेत्र तक ही साहित्य सीमित नहीं है। वह मानव- जीवन की सभी खोजों के साथ अपना विस्तार बढ़ाता चला जा रहा है। यदि साहित्य का अर्थ हम सीमित क्षेत्र में ललित-कलाओं तक भी रखें तब भी ललित-कलाओं में गद्य का विकास हो जाने के कारण कहानी, उपन्यास, निबन्ध, समा- लोचना, जीवनियाँ, गद्य-गीत इत्यादि साहित्य में प्रस्फुटित हो चुके हैं और नाटक- साहित्य भी अपनी विशेषताओं के साथ अग्रसर है। नाटक कम्पनियों और सिनेमा कम्पनियों ने इस साहित्य को विशेष प्रचय दिया है। साहित्य का रूप बदल गया और साहित्य का दृष्टिकोण भी। जब-जब राष्ट्र को जैसी-जैसी आवश्यकता रही है तब-तब उसी प्रकार का साहित्य लिखा गया है। साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है।

आज के साहित्य ने प्रेम, विरह और श्रृंगार को भुलाया नहीं परन्तु उनका दृष्टिकोण बदल दिया है। रीति-शास्त्रों पर आधारित स्यून विचारों के स्थान पर भाषा और शैली के आधुनिक प्रयोग किये जा रहे हैं। नख-सिख वर्णन और प्राचीन केलि-विलात इत्यादि को आज के कवियों ने अपने साहित्य में स्थान नहीं दिया। आज का कवि करता है. प्रेमी और प्रेमिका के भावना जगत में होने वाले मनोभावों का वैज्ञानिक चित्रण। वह अभिसार, विपरीत रति, सुरता- रम्भ, दूती इत्यादि का समावेश अपने साहित्य में न करके तन्मयता और बात्म- बलिदान का चित्रण करता है।

वीर-काव्य आज का कवि भी तिखता है, परन्तु उसमें केवल शब्दों की झंकार-मात्र न होकर कष्ट-सहन और आत्मोत्सर्ग की भावना रहती है। युद्ध क्षेत्र में जाकर तलवार चलाने वाले नायक का चित्रण आज के कवि को नहीं करना होता । उसे तो राष्ट्रीय स्वरूप का निरूपण करना होता है। आज की राष्ट्रीय भावना और प्राचीन राष्ट्रीय भावना में भी अन्तर आ चुका है। प्राचीन काल में धर्म पर राष्ट्र बाधारित था बौर इसीलिए धार्मिक भावना ही राष्ट्रीय भावना थी। वही भावना हमें 'चन्द्र' और 'भूषण' में मिलती है। परन्तु आज के साहित्य में धर्म गौण है बौर राष्ट्र प्रधान। इसलिए वीर-काव्य का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म का क्षेत्र पृथक् है और राष्ट्र का क्षेत्र पृथक् है।

"आज के नये साहित्य में देश के प्रति भक्ति और प्रेम, राष्ट्रीय और जातीय वीरों के गुण-गान, अपनी पतित दशा पर शोक, नारी-स्वतन्त्रता के गीत, व्यक्ति की आशा और निराशा, प्रकृति आकर्षण और प्रेम, रहस्यमयी सत्ता की अनुभूति, प्रतिदिन के दैनिक जीवन का विश्लेषण, राष्ट्रीय और जातीय समस्याएँ प्रचुर मात्रा में उपस्थित हैं।" -डॉ० रामरतन भटनागर।

आधुनिक काल का रहस्यवाद भी हमें 'ठायावाद' के रूप में मिलता है परन्तु उस पर अंग्रेजी रोमांटिक (Mystic Literature) साहित्य और बँगला- साहित्य का प्रभाव रहस्यवाद तथा छायाबाद में है परन्तु धार्मिक भावना में नहीं। धर्म का आज के युगों में अभाव है, दर्शन का नहीं। दर्शन का सम्बन्ध केवल दृश्य-जगत तक ही सीमित रह जाता है, आध्यात्मिक क्षेत्र तक उसे ले जाना आज के लेखक उचित नहीं समझते। कविवर 'निराला' में दार्शनिक चिन्तन और मैथिलीशरण 'गुप्त' में 'धार्मिक भावना' का समावेश मिलता है परन्तु उसमें भी कबीर और तुलसीदास जैसी भावनाओं का सम्पूर्ण एकीकरण नहीं मिलता । सांसारिकता (Matterialisticism) का समावेश उनके साहित्य में पग-पग पर मिलता है।

नवीन युग में मानव-जीवन पर जितना साहित्य लिखा गया है उतना धर्म और दर्शन पर नहीं। मानव का विश्लेषण आज के लेखक के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है, इसलिए उसने जीवन के विविध पहलुओं पर जी खोलकर विचार किया है। उपन्यास, कहानी और जीवनियों में तो प्रधान विषय हो मानव-जीवन है। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों और कहानियों में समाज का सुन्दर चित्रण किया है। प्राचीन साहित्य में इस प्रकार के काव्य तो हैं ही नहीं।

आज के युग ने बुद्धि को प्रधानता दी है। नवीन साहित्य बुद्धि का आश्रय लेकर चलता है और प्राचीन साहित्य भावना का। भावना-प्रधान साहित्य में रस प्रधान होता है और बुद्धि-प्रधान साहित्य में वास्तविकता, जड़ता और चमत्कार । आज का साहित्य धार्मिक क्षेत्र में गौण है परन्तु मानवता के वह अमर सिद्धान्त उसमें वर्तमान है जिनका दर्शन भी हमें प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता ।

-यज्ञदत्त शर्मा

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