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दो ग़ज़लें (काव्य) |
Author: शांती स्वरुप मिश्र
शीशे का है दिल, ठोकर मत लगाना मुझको !
बाज़ारे इश्क़ में, तमाशा मत बनाना मुझको !
तुमको रखा है ख्वाबों सा पलकों में सजा के,
बेसबब अपनी नज़रों से, मत गिराना मुझको !
छोड़ कर दुनिया को थामा है तेरा दामन मैंने,
कभी फरेबों के जाल में ,मत फ़साना मुझको !
गुज़री है उम्र सारी, जाने कितनी आफतों से
ख़ुदा के वास्ते ,अब और मत सताना मुझको !
तमन्ना है कि ख़ुशी से गुजारूं ये ज़िंदगी "मिश्र",
अब ग़मों की भूली दास्तां, मत सुनाना मुझको !
- शांती स्वरुप मिश्र
ई-मेल: mishrass1952@gmail.com
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हूँ परेशान मगर, नाराज़ नहीं हूँ !
झूठे सपनों का, मोहताज़ नहीं हूँ !
जिया हूँ ग़मों में भी मज़े के साथ,
मैं बिगड़े सुरों का, साज़ नहीं हूँ !
देख लिए सभी ने सितम ढा कर,
मैं उनकी तरह, दगाबाज़ नहीं हूँ !
रिश्तों को निभाया जतन से मैंने,
पर चुप रहूँ मैं, वो आवाज़ नहीं हूँ !
ईमान से जीने का आदी हूँ "मिश्र",
मैं कोई दिल में छुपा, राज़ नहीं हूँ !
- शांती स्वरुप मिश्र
ई-मेल: mishrass1952@gmail.com