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जन्म-दिवस पर... (काव्य) |
Author: वंदना भारद्वाज
वो हर बरस आता है और मेरी उम्र का दर खटखटाता है
मैं घबरा कर उठती हूँ, उफ्फ तुम!
वो मुझसे नज़रें मिलता है, मैं झुका लेती हूँ अपनी नज़रें।
मैं बुझे से मन से उसे आने को कहती हूँ,
-कहो कैसी हो? क्या किया बरस भर?
वो मेरे हर पल, हर दिन का हिसाब माँगता है,
मैं अपराधी की भाँति नज़रें झुकाए बैठी रहती हूँ,
वो मुझसे बहुत नाराज़ होता है।
मैं हर बार की तरह झूठे वादे करती हूँ,
- तुम अगले बरस आओगे, मझे...
यूँ न पाओगे।
-वंदना भारद्वाज