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बलजीत सिंह की दो कविताएं (काव्य) |
Author: बलजीत सिंह
बर्फ का पसीना
सर्द
सुबहें,
रातें
अल्लाह!
फक कोहरे में
जायल
मानव - पिंजर।
अँधेरा,
कोहरे में ढका,
थरथराता,
कांपता,
हैवानियत का देवता
कोहरे की दहशत
अपनी आँखों में
कैद करता,
लुकता,
घिसड़ता
पथरीली ज़मीन पर।
कोहरा
आसमान का देवता
कूंच करता
ज़मीं की ओर
निगलता जाता
रास्ते के पहाड़,
आवारा सडकें,
बंज़र मरुस्थल,
निडर नदियाँ,
पठार
सबकुछ ।
कोहरा
नदी से उगता - सा
नदी को छूता,
चखता
और
महीनों की इकट्ठी
अपने अंदर की ठंड
उड़ेल देता
नदी के नंगे सीने पर
कोहरा
नदी के ज़ेहन में भी रेंगता है
एक खौफ बनकर।
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रात
सुबह
रात को खोजता हूँ
रात:
स्याह काली
पर कितनी खूबसूरत होती है
रात:
कभी हसीं यादों से
तो कभी ख्वाबों से
सजी होती है
रात:
जब थे हम - तुम एक साथ;
काली थी
पर कितनी अच्छी थी
रात:
उस रोज़ कितनी खामोश
कितनी सच्ची थी।
सूरज का उगना
रात की सांसों का उखड़ना है
साथ,
असंख्य लोगों के
असंख्य ख्वाबों का भी उजड़ना ही
और यह दिन
बंज़र कर देता है
मस्तिष्क के उस हिस्से को
जहाँ
ख्वाब उगते है।
- बलजीत सिंह
ईमेल: i.baljeet.singh83@gmail.com
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बलजीत सिंह साहित्य अकादेमी, दिल्ली से प्रकाशित और हिंदी अकादेमी, दिल्ली से पुरस्कृत युवा पत्रकार हैं। आप कहानी, कविताएं, आलेख, पुस्तक समीक्षा और फोटोग्राफ करते हैं और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं।