यह कैसे संभव हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा समस्त भारत की मातृभाषा के समान हो जाये? - चंद्रशेखर मिश्र।
 

तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे (काव्य)

Author: प्रशांत कुमार पार्थ

चढी है प्रीत की ऐसी लत
छूटत नाहीं
दूजा रंग लगाऊँ कैसे!
गठरी भरी प्रेम की
रंग है मन के कोने कोने बसा
दिखत नही हो कान्हा मोहे
तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे!

ओ नटखट
तुझसा दूजा रंग कहा धरा पर
तुझसंग रास रचाऊँ कैसे!

मटकी फूटत
सराबोर है जग सारा
छिपत फिरे रहे
लाज ना आवत
कहीं राधा, कहीं कृष्ण दिखत हो
मन की भेंट चढाऊँ कैसे,
तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे!

मन के मैल फीके पड़ रहे
सब की सूरतीया एक ही लागत
कहाँ छिपे हो
मुझसंग कान्हा
तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे!

मस्ती उमंग की टोली दिखी रही
बच्चों की भोली मूरत दिखी रही
इधर उधर हुड़दंग मची रही
पिचकारी संग धूम मचाए
कहाँ छिपे हो बनके बाल गोपाल
कौन सी मधूर मुस्कान लिए हो
मिल भी जावो
रंग प्रीत का लगाऊँ कैसे!

हरा, गुलाबी
रंग लाल है
पीली पीली हाथों की सहेली
जी मचले और उठे उमंग
आई फिर से प्रीत की होली
ना छूटत है प्रेम का भंग
जबतक ना खेलूँ तुझसंग कान्हा
मिल भी जावो
तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे !

- प्रशांत कुमार पार्थ
  ई-मेल: prshntkumar797@gmail

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश