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अंजुम रहबर की दो ग़ज़लें (काव्य) |
Author: अंजुम रहबर
फूलों पे जान दी
फूलों पे जान दी कभी कांटों पे मर लिये
दो दिन की ज़िन्दगी में कई काम कर लिये
शायद कोई यहाँ हमें पहचानता नहीं
हम फिर रहे हैं शहर में शीशे का घर लिये
मोहताज कब रहे हैं किसी आईने के हम
पत्थर भी मिल गया है हमें तो संवर लिये
अब और क्या वफ़ाओं का अपनी सुबूत दें
इल्ज़ाम आपके थे मगर अपने सर लिये
कल क़हक़हों का जश्न हुआ था तमाम रात
हम भी शरीके बज़्म रहे चश्मे तर लिये
"अंजुम" ज़रुरतों के तमाशे भी खूब हैं
हम अपने फ़न को फिरते रहे दर बदर लिये
--अंजुम रहबर
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सच बात मान लीजिये
सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
इल्ज़ाम आईनों पे लगाना फ़िजूल है
तेरी नवाजिशें हों तो कांटा भी फूल है
ग़म भी मुझे कुबूल खुशी भी कुबूल है
उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़िजूल है
जब भी मिला है ज़ख़्म का तोहफ़ा दिया मुझे
दुश्मन ज़रूर है वो मगर बा-उसूल है
अंजुम ये सारे रंग फ़रेबों से कम नहीं
दुनिया मेरी निगाह में काग़ज़ का फूल है
--अंजुम रहबर