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जीवन-संध्या (कथा-कहानी) |
Author: लीलावती मुंशी
दिन का पिछला पहर झुक रहा था। सूर्य की उग्र किरणों की गर्मी नरम पड़ने लगी थी, रास्ता चलने वालों की छायाएँ लंबी होती जा रही थीं।
सामने एक पहाड़ धूप में थोड़ा-सा चमक रहा था और थोड़ा-सा बदली की छाया में अंधकारग्रस्त था। रास्ते के दोनों ओर खेत थे, पर एक में भी अनाज का पौधा न उगा था । सामने रास्ते पर थोड़े-थोड़े अंतर पर वृक्ष आते थे; पर मुसाफिर की थकान उनसे पूरी तरह उतरती न थी।
इसी मार्ग से वृद्ध, थके हुए कृष्ण आगे-आगे चले जा रहे थे। गंतव्य स्थान का उन्होंने निश्चय नहीं किया था। जहां पृथ्वी रहने की जगह दे दे और जहां उनको कोई पहचानता न हो, दुनिया के किसी ऐसे कोने को वे खोज रहे थे ।
इनके पैर थक गए थे। इनका वृद्ध शरीर झुकने लगा था। इनकी आंखें तेज विहीन हो गई थी। वस्त्र मैले और अस्त-व्यस्त थे।
यादवों के युद्ध के उपरांत, समस्त स्वजनों के संहार के बाद कृष्ण अपने लिए दुनिया का एक कोना खोजने निकले थे। अब तक भारत में इन्हें एक भी कोना ऐसा न दिखाई दिया था, जहां इन्हें कोई पहचानता न हो। इनके पूर्व पराक्रमों को सारी दुनिया जानती थी। कोई ऐसा मनुष्य न था, जो इन्हें देखकर कांप न जाता हो। कोई ऐसा मनुष्य न था, जो इन्हें देख कर भाग जाने के लिए तत्पर ना हो जाता हो।
कोई इनको देखता कि तुरंत पूतना-वध से लगाकर इनके अमानुषी-दैवी चालें उसकी आंखों के सामने आ जाती और उनमें से किसी में कहीं वह न फंस जाए, इस डर से दूर भागता। कोई इनके जरासंध, भीष्म, शिशुपाल और दूसरे अनेक वधों में दैत्य-छल और क्रूरता के दर्शन करता और इनके मार्ग से दूर रहने में सावधानी रखता। सुंदर स्त्रियों या बालिकाओं के पतियों और पिताओं को इन्हें देखते ही इनका स्त्री पराक्रम याद आ जाता, और इस भी से कि कहीं इनकी बालिकाओं अथवा स्त्रियों को भी यह पागल न कर डालें, जहां से यह निकलते, वहां के लोग अपनी स्त्रियों को घर के सबसे भीतरी भाग में, जहां उनकी मोहक नेत्र न पड़ सकें, छिपा कर रखते। पंडित वाद-विवाद में परास्त होने के भय से भागते। राजा राज्य चले जाने के भय से भागते। साधारण जन-समाज कुछ समझ में न आने वाले भय के कारण दूर रहता। छोटे बालक भी इस विचित्र वृद्ध पुरुष की आंखें तथा दृष्टि देखकर दूर से ही भाग जाना पसंद करते।
हारे-थके श्रीकृष्ण आगे-आगे अपना रास्ता नापे जा रहे थे। महाभारत के युद्ध को जीतने वाले, अर्जुन के सखा और सारथी, कंस का संहार करने वाले, कालिया मर्दन करने वाले, अनेक व्यक्तियों के काल तथा अनेक ऋषि-मुनियों की आराधना के पात्र, गोपियों के प्रिय श्रीकृष्ण आज असहाय दशा में विश्राम-स्थान की खोज में इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे थे।
इनका कोई मित्र नहीं बचा था। इनका कोई स्वजन नहीं बचा था। महाभारत आदि अनेक छोटे-बड़े युद्ध में तथा अंत में यादवस्थली में सब समाप्त हो गए थे । रह गए केवल वे अकेले भक्ति-विहीन, मित्र-विहीन, सोलह हज़ार और आठ पत्नियों से विहीन। जिनके एक-एक बोल पर कभी मानवों और देवों का समस्त विश्व निछावर रहता था, आज उनमें से एक भी उनका साथ देने वाला नहीं था।
तेज धूप में चलते-चलते गर्मी और भूख से कृष्ण के प्राण आकुल हो रहे थे। सामने एक झोपड़ी में एक ग्वालिन गाय दूह रही थी। सारे जीवन में स्त्रियों ने कृष्ण का आदर-सत्कार सबसे अधिक किया था। कृष्ण ने उसी आशा में झोपड़ी की ओर पैर बढ़ाए ।
कृष्ण को आते हुए देखकर ग्वालिन चौंक कर खड़ी हो गई। कृष्ण इस प्रदेश में भ्रमण कर रहे हैं, यह बात तो कब की उसके कानों में पहुंच गई थी। इस वृद्ध, मैले, थके-हारे मनुष्य के हाथ में से गोकुल की गोपियों को जीतने वाली शक्ति जा चुकी थी । इन्होंने संकोच भरे स्वर में पूछा, "ग्वालिन, दहीं दोगी?"
ग्वालिन की 'ना' कहने की हिम्मत नहीं हुई। पत्तों पर थर-थर कांपता हुआ ताजे दूध का घड़ा उसने उठाया; पर वह हाथ से छूटकर गिर पड़ा । ग्वालिन बिना कुछ कहे-सुने घर में से दहीं की दूसरी मटकी ले आई और वह कृष्ण की अंजलि में उडेलने लगी। बहुत दिनों के भूखे कृष्ण ने एक ही बार में अंजली से मुंह लगाकर सारी मटकी पी डाली। इनके निष्क्रिय होते हुए शरीर में शक्ति का संचार होने लगा। कृतज्ञता की एक गंभीर दृष्टि इन्होंने ग्वालिन पर डाली ग्वालिन की आंखों में अब भी भय के चिह्न थे।
कृष्ण को जीवन में पहली बार अपने आप पर तिरस्कार का अनुभव हुआ। इसलिए नहीं कि किसी नारी की मित्रता के योग्य वह नहीं रह गए थे, बल्कि इसलिए कि कोई भी नारी अब अपने को उनकी मित्रता के योग्य नहीं समझती थी । सब इनको देखकर डरतीं और भाग जातीं थी। हजारों स्त्री-पुरुषों के साथ रहने वाले श्रीकृष्ण ऐसा भयंकर एकांत किस प्रकार सहन कर सकते थे? मानव के उद्धार के लिए इन्होंने अवतार लिया, मानवता की सेवा में अपनी शक्तियां समर्पित की तथा जीवन भर मानवता की रक्षा के लिए युद्ध लड़े । और, आज इस सवा सौ वर्ष की वृद्धावस्था में एक झोपड़ी भी इन्हें आश्रय देने के लिए न थी! एक भी आदमी इनके साथ बात करने के लिए न था! "हे परमात्मा! इस जीवन की तुम्हीं अंतिम शरण हो।" कृष्ण ने विदीर्ण अंतर से प्रार्थना की।
संध्या की छाया प्रतिपल लंबी होती जा रही थी। ग्वालिन का मौन आभार मानकर श्रीकृष्ण ने जंगल की राह ली। इन्हें पूर्व जन्म की स्मृतियां एक के बाद एक सताने लगी। दुनिया की दृष्टि में इन्होंने सबसे विजयी जीवन व्यतीत किया था। राज्य खोए और लिए तथा दान किए। शत्रुओं का संहार किया, मित्रों का उद्धार किया और मूर्खता के पाठ से उन्हें मुक्त किया। प्रेम लिया और दिया। चक्रवर्ती की संपत्ति प्राप्त की और खोई। जीवन में इससे अधिक और क्या हो सकता है?
परंतु आज इन सौ वर्षों की गणना में इन्होंने कितने पल शांति या सुख में बिताए थे? इनकी दैवी या दानवी शक्तियों की धाक में शत्रु या मित्र ने कभी इन पर पूरा-पूरा विश्वास किया था? मित्र कहे जाने वाले मित्र, इनके जैसे शक्तिशाली पुरुष की शक्ति या रक्षा किसी दिन काम आएगी, यह सोचकर इनकी मित्रता खोजते। मनुष्य हमेशा इनकी शरण चाहते और अपना काम निकालते। शत्रु जहां तक होता, इन्हे छेड़ते न थे। इनके अंत:पुर में रहने वाली सोलह हजार सुंदरियां तथा इनके हजारों पुत्र भी उनके साथ बिल्कुल निर्भयता या विश्वासपूर्वक व्यवहार नहीं कर सकते थे। सब इन्हें कपटी और क्रूर समझते। भक्तों को भी, जरूरत पड़े तो खुशामद की बातें कर याचना करने के अतिरिक्त दूसरा कुछ काम कृष्ण का न था । ये एक महान अन्यायी थे। इनकी इच्छानुसार सबको चलना पड़ता। इन के विरुद्ध हो जाने पर किस क्षण यह क्या कर डालेंगे, इस विषय में इनके मित्र भी कुछ नहीं सोच सकते थे ।
पर क्या वास्तव में इनका कोई मित्र था? इतने वर्षों बाद श्रीकृष्ण को शंका होने लगी । यदि केवल एक साधारण मानव जैसे होते और लोगों ने उनमें दैवी अथवा दानवी अंश की कल्पना न की होती तो.... तो.....? इतने सारे कहे जाने वाले मित्रों की अपेक्षा चाहे थोड़े ही मित्र मिलते, पर जीवन की संध्या में इस प्रकार असहाय और अकेले तो न फिरना पड़ता । कोई स्नेहमयी आत्मा इनकी थकान दूर करने के लिए तथा दुःख भुलाने के लिए उपस्थित तो हो जाती।
कृष्ण बहुत थके हुए थे और एक कदम भी इनसे आगे न बढ़ा जा रहा था। मार्ग के पार्श्व में एक वृक्ष के नीचे जा कर यह जमीन पर बैठ गए। विचारों के भँवर-जाल से इनका मस्तिष्क चकरा रहा था। चलते-चलते इनका अंग-प्रत्यंग दुखने लगा था। स्वर्ण के सिंहासन को सुशोभित करने वाले मुरारी ने जमीन पर पैर फैला दिए और हाथ का उपधान बनाकर, धोती का छोर ओढ़कर आंखें बंद कर लीं। परंतु समस्त विश्व को हिला देने वाला इस दशा में स्वस्थता से कैसे सो सकता?
आंखें मिचीं और इन को शंका होने लगी--उन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिए जन्म लिया था, पर वहां पर क्या उनके समस्त जीवन में पृथ्वी को बड़ी-से-बड़ी पीड़ा नहीं हुई थी?
गोकुल से ही इसका आरंभ हुआ था। कृष्ण की शक्ति पर आश्रित रहने वाले ग्वालों ने आस-पास के गांवों में अपने तूफानों से कितना त्रास मचाया? एक द्रोपती के कारण पांडव-जैसे मूर्खों को राज्य दिलाने के लिए इन्होंने महाभारत के युद्ध में करोड़ों का संहार कराया और उसमें भी अपने मित्रों तथा गुरुओं को मारते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा। और अंतिम यादवस्थली? इनकी शक्ति के बल पर शक्तिशाली बने हुए यादव इतने बढ़कर चले कि इन्हें न्याय-अन्याय तक का भय ना रहा; ना इन्हें नीति-अनीति की चिंता रही; रात-दिन मदिरा में मस्त रहते। ये गर्वीले यादव? और उनमें बलराम और सांब, प्रदुम्न और प्रिय अनिरुद्ध सबकी याद कर कृष्ण जैसे जगत-पुरुष की आंखें भी गीली हुए बिना ना रहीं।
"परमेश्वर! जिस तेज के अंश से तूने मेरा निर्माण किया है, वहीं मुझे वापस बुला ले। तूने मुझ में जो विश्वास रखा था, वह निष्फल हो गया। अपने जीवन में मुझे असफलताओं की श्रृंखला के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई देता। जीवन भर मैंने नाश, नाश और नाश के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। मेरे चाहने वालों ने भी कभी मुझ में विश्वास नहीं किया। पर आज तो वह सब वैभव और भव्यता जाती रही। जीवन की क्रीड़ाएँ भी समाप्त हो गईं। अब तो अशक्त और एकाकी, जर्जरित तथा निर्बल तेरा शिशु तुझे पुकार रहा है। दीनानाथ! अब यह जीवन लीला समेट लो!"
क्या वास्तव में विश्व-पालक ने कृष्ण की प्रार्थना सुनी? चादर छोटी होने के कारण कृष्ण का पैर चादर के बाहर खुला रह गया था। इस पाद-पृष्ठ पर लाल पद्म का चिन्ह संध्या के धूमिल प्रकाश में दूर से चमक रहा था। इसलिए दूर से यह पैर एक छोटे पक्षी जैसा लगता था। एक वधिक ने दूर से देखा और तीर छोड़ दिया । एक क्षण में ही कृष्ण का पैर घायल हो गया और उन्होंने कहा--"हे परमपिता परमात्मा! तूने मेरी विनती सुन ली।"
वधिक पास आया और भूल समझकर पश्चाताप करने लगा; पर इससे पहले ही इस जगत पुरुष के प्राण जगत के सनातन तत्व में जा मिले थे।
मृत्यु? जगत का यह महापुरुष इस प्रकार वीरान जंगल में एक बहेलिये के हाथ से मरा! पर जिस प्रकार कथा प्रचलित है, यह घटना ठीक उसी प्रकार घटी थी।
- लीलावती मुंशी