वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।
 

पथिक

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 मोहनलाल महतो वियोगी

पथिक हूँ,— बस, पथ है घर मेरा। 
बीत गए कितने युग चलते किया न अब तक डेरा। 
नित्य नया बनकर मिलता है, वही पुराना साथी, 
निश्चित सीमा के भीतर ही लगा रहा हूँ फेरा। 
हैं गतिमान सभी जड़-चेतन, थिर है कौन बता दे? 
क्षण, दिन, मास, वर्ष, ऋतु, यौवन, जीवन, विभा अँधेर 
दर्शन - पात्र एक ही जन है, क्षण क्षण रूप बदलता, 
इस नाटक में बस दो पट हैं, संध्या और सवेरा। 
"इसके बाद और भी कुछ है " यही बताकर आशा, 
लेने देती नहीं तनिक भी, मन को कहीं बसेर । 
ममते! देख दिवस ढलता है, घन घनघोर उठे हैं, 
बतला दूर यहाँ से क्या है अभी नगर वह तेरा? 
पथिक हूँ— बस, पथ है घर मेरा—

-मोहनलाल महतो 'वियोगी'

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