समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
 

बड़े साहिब तबीयत के... | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

बड़े साहिब तबीयत के ज़रा नासाज़ बैठे हैं
हमे डर है गरीबों से तनिक नाराज़ बैठे हैं

महल के गेट पर, सोने की तख्ती पर लिखाया है
'यहां के तख्त पर सबसे बड़े फ़य्याज़ बैठे हैं'

नया फरमान आया है, परों में सर छुपाने का
जमीं की ओर मुंह कर के चिड़ी, शहबाज़ बैठे हैं

सुना है जो कलम वाले कभी जौहर दिखाते थे
दुबक कर हाशिए पर वो सभी जांबाज़ बैठे हैं

नया झगड़ा नहीं, लेकिन नई नस्लें मिटाने को
पुरानी जंग का करके नया आगाज़ बैठे हैं

नतीजा जंग का ठहरा उन्हीं की नीयतों पर है
मेरे दुश्मन के खेमें में मेरे हमराज़ बैठें हैं

रुहानी ताल पर जबसे हमारी नब्ज़ थिरकी है
कलाई हाथ में धर के सभी नब्बाज़ बैठे हैं

जुबां शरमा के ड्योढी से, हजारों बार लौटी है
तुम्हारे नाम से लिपटे, वहां अल्फाज़ बैठे हैं

हुई है 'शाम' तो घर में दिया बाती भी हो जाए
अगर आ जायें वो जिनको दिए आवाज़ बैठे हैं

- संध्या नायर, ऑस्ट्रेलिया

शब्दार्थ
फय्याज = दानवीर
शहबाज़ = बाज़ पक्षी
नब्बाज = नब्ज़ पढ़ने वाला

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