भारतेंदु और द्विवेदी ने हिंदी की जड़ पाताल तक पहुँचा दी है; उसे उखाड़ने का जो दुस्साहस करेगा वह निश्चय ही भूकंपध्वस्त होगा।' - शिवपूजन सहाय।
 

शहीद

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 श्रीकृष्ण सरल

देते प्राणों का दान देश के हित शहीद
पूजा की सच्ची विधि वे ही अपनाते हैं,
हम पूजा के हित थाल सजाते फूलों का
वे अपने हाथों, अपने शीष चढ़ाते हैं।

जो हैं शहीद, सम्मान देश का होते वे
उत्प्रेरक होतीं उनसे कई पीढ़ियाँ हैं,
उनकी यादें, साधारण यादें नहीं कभी
यश गौरव की मंज़िल के लिए सीढ़ियाँ हैं।

कर्त्तव्य राष्ट्र का होता आया यह पावन
अपने शहीद वीरों का वह जयगान करे,
सम्मान देश को दिया जिन्होंने जीवन दे
उनकी यादों का राष्ट्र सदा सम्मान करे।

जो देश पूजता अपने अमर शहीदों को
वह देश, विश्व में ऊँचा आदर पाता है,
वह देश हमेशा ही धिक्कारा जाता, जो
अपने शहीद वीरों की याद भुलाता है।

प्राणों को हमने सदा अकिंचन समझा है
सब कुछ समझा हमने धरती की माटी को,
जिससे स्वदेश का गौरव उठे और ऊँचा
जीवित रक्खा हमने उस हर परिपाटी को।

चुपचाप दे गए प्राण देश-धरती के हित
हैं हुए यहाँ ऐसे भी अगणित बलिदानी,
कब खिले, झड़े कब, कोई जान नहीं पाया
उन वन-फूलों की महक न हमने पहचानी।

यह तथ्य बहुत आवश्यक है हम सब को ही
सोचें, खाना-पीना ही नहीं ज़िंदगी है,
हम जिएँ देश के लिए, देश के लिए मरें
बन्दगी वतन की हो, वह सही बन्दगी है।

क्या बात करें उनकी, जो अपने लिए जिए
वे हैं प्रणम्य, जो देशधरा के लिए मरे,
वे नहीं, मरी केवल उनकी भौतिकता ही
सदियों के सूखेपन में भी वे हरे-भरे।

वे हैं शहीद, लगता जैसे वे यहीं-कहीं
यादों में हर दम कौंध-कौंध जाते हैं वे,
जब कभी हमारे कदम भटकने लगते हैं
तो सही रास्ता हमको दिखलाते हैं वे।

हमको अभीष्ट यदि, बलिदानी फिर पैदा हों
बलिदान हुए जो, उनको नहीं भुलाएँ हम,
सिर देने वालों की पंक्तियाँ खड़ी होंगी
उनकी यादें साँसों पर अगर झुलाएँ हम।

जीवन शहीद का व्यर्थ नहीं जाया करता
मर रहे राष्ट्र को वह जीवन दे जाता है,
जो किसी शत्रु के लिए प्रलय बन सकता है
वह जन-जन को ऐसा यौवन दे जाता है।

-श्रीकृष्ण 'सरल'

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