मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 

दिन में जो भी प्यारा | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

दिन में जो भी प्यारा मंज़र लगता है
अंधियारे में देखो तो डर लगता है

आँगन में कर दीं इतनी दीवार खड़ी
अब उन दीवारों पर ही सर लगता है

इतना भटकाया है हमको रस्तों ने
अब हर रस्ता ही अपना घर लगता है

कहता है कुछ लेकिन कुछ वो करता है
वो बस बातों का सौदागर लगता है

पहले पहले दर्द का था अहसास बहुत
लेकिन अब पहले से बेहतर लगता है

हममें उनमें शायद अब वो बात नहीं
कहते कुछ भी रहते हों पर लगता है

घूमें चाहे सारी दुनियाँ में फिर भी
सबसे अच्छा घर का बिस्तर लगता है

इतना सहमा देते हैं अख़बार हमें
रहना अच्छा घर के भीतर लगता है

बादल बन कर मरुथल तक जाना चाहें
पर जाने का रस्ता दूभर लगता है

कल तक तो जो हँसता खिलता दिखता था
खोया खोया अब वो अक्सर लगता है

बचपन में हम खेले जिस घर आँगन में
अब वो घर का आँगन बंजर लगता है

पहले तो इक पल भी जीवन लगता था
अब तो पूरा जीवन पल भर लगता है

- प्रगीत कुँअर
  सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
  ई-मेल: prageetk@yahoo.com

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश