हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले मर जाऍंगे भूखे-प्यासे कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले बस सपनों में देख रहे हैं तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते नील गगन की सीमा पाने लाल किरण-सी चोंच खोल चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो लेकिन पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
- शिवमंगलसिंह सुमन |