सुमित्रानंदन पंत की हस्तलिपि में उनकी कविता, 'बाँध दिए क्यों प्राण'
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बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से! तुमने चिर अनजान प्राणों से! गोपन रह न सकेगी, अब यह मर्म कथा, प्राणों की न रुकेगी, बढ़ती विरह व्यथा, विवश फूटते गान प्राणों से! यह विदेह प्राणों का बंधन, अंतर्ज्वाला में तपता तन, मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को, दग्ध कामना करता अर्पण! नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से!
बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से!
-सुमित्रानंदन पंत
[आधुनिक कवि, भाग २]
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