मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं । अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं ॥
मैंने बलशाली राजाओं के, ताज उतरते देखे हैं । मैंने जीवन की गलियों से तूफ़ान गुज़रते देखे हैं ॥
देखा है; कितनी बार जनम के, हाथों मरघट हार गया । देखा है; कितनी बार पसीना, मानव का बेकार गया ॥
मैंने उठते-गिरते देखीं, सोने-चाँदी की मीनारें । मैंने हँसते-रोते देखीं, महलों की ऊँची दीवारें ॥
गर्मी का ताप सहा मैंने, झेला अनगिनत बरसातों को । मैंने गाते-गाते काटा जाड़े की ठंडी रातों को ॥
पतझर से मेरा चमन न जाने, कितनी बार गया लूटा । पर मैं ऐसी पटरानी हूँ, मुझसे सिंगार नहीं रूठा ॥
आँखें खोली; देखा मैंने, मेरे खंडहर जगमगा गए । हर बार लुटेरे आ-आकर, मेरी क़िस्मत को जगा गए ॥
मुझको सौ बार उजाड़ा है, सौ बार बसाया है मुझको । अक्सर भूचालों ने आकर, हर बार सजाया है मुझको ॥
यह हुआ कि वर्षों तक मेरी, हर रात रही काली-काली । यह हुआ कि मेरे आँगन में, बरसी जी भर कर उजियाली ।।
वर्षों मेरे चौराहों पर, घूमा है ज़ालिम सन्नाटा । मुझको सौभाग्य मिला मैंने, दुनिया भर को कंचन बाँटा ।।
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