अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
पुराने ख़्वाब के फिर से | ग़ज़ल (काव्य)    Print  
Author:कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
 

पुराने ख़्वाब के फिर से नये साँचे बदलती है
सियासत रोज़ अपने खेल में पाले बदलती है

हम ऐसे मोड़ पर आ कर अचानक टूट जाते हैं
जहाँ से ज़िन्दगी अपने कई रस्ते बदलती है

हमेशा एक सा चेहरा बहुत कम लोग रखते हैं
यहाँ इंसान की फ़ितरत कई चेहरे बदलती है

हवा में भीगते हैं बारिशों में सूख जाते हैं
मुहब्बत मौसमों का रूख़ सलीक़े से बदलती है

हमे ग़ुरबत से बाहर आने का मौक़ा नहीं मिलता
कोई साज़िश हमारे घर के दरवाज़े बदलती है

- कृष्ण सुकुमार
153-ए/8, सोलानी कुंज,
भारतीय प्रौद्योकी संस्थान
रुड़की- 247 667 (उत्तराखण्ड)

 

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Posted By Narendra K.   on Wednesday, 18-Nov-2015-14:08
दूर देश से हिंदी पत्रिका निकालने के लिए शुक्रिया .
 
 
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