"अरे ओ दुर्योधन निर्लज्ज! अभी भी यों बढ़-बढ़कर बात। बाल बाँका कर पाया नहीं तुम्हारा वीर विश्व-विख्यात॥
किया था उसने भरसक यत्न खींचने को मेरा यह वस्त्र। सत्य के सम्मुख पर टिक सके देर तक कब असत्य के शस्त्र॥
जानते तुम इसका न रहस्य हो रहे मादकता में चूर। नग्न अभिलाषाओं के भवन चाहते हो रखना भरपूर॥
स्पृहा रखने की है पास विश्व का वैभव कर एकत्र। स्वप्न तुम देख रहे हो आज कि होगा साम्राज्य सर्वत्र॥
तुम्हारे ही हैं जो ये बन्धु, हमेशा दिया जिन्होंने साथ। उन्हीं के ऊपर तुमने किया आज धोखे से यह आघात॥
जगत को दिखलाते तुम रहे कि कौरव-पाण्डव दोनों बन्धु। और कल तक दोनों के बीच उमड़ता रहा प्रेम का सिन्धु॥
मुस्कराते ऊपर से रहे प्रेम का नाटक किया विचित्र। दिखाते रहे कि तुम हो निकट पाण्डवों के बान्धव औ’ मित्र॥
किन्तु भीतर भीतर चुपचाप बिछाये तुमने अनगिन पाश। फँसाने को पाण्डव निष्कपट, चाहते थे तुम उनका नाश॥
क्योंकि तुम सहन कर सके नहीं देख कर उनका शान्त विकास। शान्ति-सहयोग-प्रेम से पहुँच रहे थे वे दुनिया के पास॥
ईर्ष्या तुमको थी अस्वस्थ, देख जग में उनका सम्मान। विश्व को दिखलाना तुम चाह रहे थे अपनी शक्ति महान्॥
इसलिए लिया कपट से जीत युधिष्ठिर को जूए में आज। और छल के बल से ही छीन लिया है तुमने उनका राज॥
दे रहे हैं ये विदुर-विकर्ण न्याय-सम्मत जो अपनी राय। सुहाती है न तुम्हें वह तनिक क्योंकि तुम नहीं चाहते न्याय॥
किनतु अन्याय, झूठ पर टिका यहाँ कब तक किसका अस्तित्व? बन रहा है समता, सहयोग, न्याय पर आज विश्व-व्यक्तित्व॥
भूल कर जो यह प्रगति, प्रवृत्ति, चाहते हैं अपना उत्कर्ष। अभी जीते हैं वे उस आदि- काल के ही लेकर आदर्श॥
क्षणिक होती दुर्योधन, मूर्ख! पाप की विजय, कपट की विजय। और शाश्वत रे केवल एक सत्य की विजय, धर्म की विजय॥
झूठ का पक्ष गरजता सदा लिये भौतिक बल का अभिमान। सत्य का पक्ष मौन गम्भीर लिये अन्तर्बल का हिमवान॥
सत्य है और नहीं कुछ, सिर्फ विमल अन्तर की ही अभिव्यक्ति। और निर्मल अन्तर में सदा वास करती है दैवी शक्ति॥
मुझे था अटल आत्म-विश्वास कि होगी अन्तिम मेरी जीत। सत्य का, न्याय-धर्म का पथिक नहीं होता विचलित, भयभीत॥
भले ही सूरज छोड़े संग भले ही शशि भी छोड़े साथ! भले ही आसमान हो क्रुद्ध करे कितने ही उल्कापात!!
भले ही जल-प्लावन हो, या कि तिमिर का ही हो पारावार। सत्य का राही इनसे नहीं कभी डरता, न मानता हार॥
सत्य का सूर्य, धर्म का चाँद न्याय के अनगिन तारक-वृन्द। साथ रहते हैं उसके सदा ज्योति बन दिव्य, अखंड-अमंद॥
उसी ज्योतिर्मय पथ पर सतत सत्य का साधक हो निर्भीक चला करता अपने पद-चिह्न छोड़ता हुआ, बनाता लीक॥
कामना उसकी रहती एक कि सब पर हो मंगलय वृष्टि। रोष में भी उठती है नहीं किसी पर कभी अमंगल दृष्टि॥
चाहती तो कर देती आज भस्म क्रोधानल से संसार। देखता रह जाता यह विश्व, शक्ति का वह अद्भुत शृंगार॥
किन्तु मेरा अन्तर्बल, क्रोध न था जग के विनाश की ओर। लोक-मंगल का ही ले लक्ष्य क्रोध ने की थी सात्त्विक रोर॥
और तुमने देखा यह स्वयं कि होते जिधर सत्य औ’ न्याय। जीत होती उनकी ही सदा समय चाहे कितना लग जाय॥
भले ही कुछ पल-क्षण के लिए विश्व की मानवता दब जाय। और उन काले पहरों बीच विश्व की दानवता जग जाय॥
किन्तु उन पहरों का भी शीघ्र शून्य में होता है अवसान। धार नव नूतन मंगल वेष अवतरित होता स्वर्ण विहान॥
अतः जो लिया कपट से छीन पाण्डवों का है तुमने राज। उसे लौटा दो उन्हें सहर्ष, रहेगी तभी तुम्हारी लाज॥
मुक्त हो पाँचों पाण्डव शीघ्र, नहीं तुम सके इन्हें पहचान। सृष्टि के मूल तत्त्व ये पाँच, अग्नि-जल-भू-नभ पवन समान॥
युधिष्ठिर सत्य, भीम है शक्ति, कर्म के अर्जुन हैं अवतार, नकुल श्रद्धा, सेवा सहदेव, विश्व के हैं ये मूलाधार॥
इन्हीं शाश्वत मूल्यों को लिये हो रही है विकसित यह सृष्टि। न जाने क्यों उन ही पर पड़ी तुम्हारी अशुभ, अमंगल दृष्टि॥
सत्य से तुमने मूँदी आँख सत्य से तुमने मूँदे नयन। धर्म से तुमने मूँदे चक्षु तुले हो करने इनका हनन॥
कर रही आज इन्हीं के लिए आत्मा मेरी यह विद्रोह। भोग-ऐश्वर्य राज्य के लिए नहीं है मुझको कोई मोह॥
नहीं तुम समझ रहे हो, क्या होगा कल इसका दुष्परिणाम। प्रलय मच जायेगा, यदि छिड़ा कहीं तुम दोनों में संग्राम॥
इसलिए सोचो-क्या है सत्य और क्या है अधर्म, अन्याय? तुम्हारी मादकता में कहीं सृष्टि ही नष्ट न यह हो जाय?
करेगा तुम्हें क्षमा न भविष्य हो गया यदि धरती का नाश। ‘विश्व की मानवता का शत्रु’ बतायेगा तुमको इतिहास॥”
- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |