आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?
हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन, यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।
फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है। भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।
झन-झन-झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में। नाच-नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर, स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।
पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला। वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने, लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।
उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें, हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें। हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे, तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।
सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का, बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का। जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला, स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।
झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने, लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने। लगी लहरने कारागृह में इंक्लाब की धारा, जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।
खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी, होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी। गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर, भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।
मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले, प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले। बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है, वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।
तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई, छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई। एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा, बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।
बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा, आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा। पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा, स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।
तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती, अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती। भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया, स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।
भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है, जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है। जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते, इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।
यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी, होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी। मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने, कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?
मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं, उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें। भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती, वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।
मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ, उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ। मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे, फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।
इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो, इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो। हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए, विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।
और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे, बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे। भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर, हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।
हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर, विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर। अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ, सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।
जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी, तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी। जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ, जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।
-श्रीकृष्ण 'सरल' |