हैवानियत तेरी भूखी थी इतनी एक ही दम में निगल ली हरेक अच्छाई मेरी मेरा स्नेह, मेरी ममता मेरी कोमलता, मेरे स्वप्न मेरा अक्स...
रोम रोम में बसा है तेरे पुरुषत्व पर, तेरे नाज़ का हरेक निशान दीवारों से टकरा कर लौट जाता है हरेक उलाहना दर्द में, नीरीह पड़ा है विचारों के दलदल में विभत्स चेहरा मेरा नि:शब्द मेरी चीख ने चीर डाला है रक्त मांस मेरा चिथड़े पड़े होंगे मेरे शरीर के किसी कोने में .. कि कोई आकर अंतिम संस्कार तो कर दे मेरा लेकिन कैसे अभिव्यक्त कर दूँ? जब पाषाण बना खड़ा है अधिकार मेरा मुक्ति मेरी..शायद कटघरे में खड़ी-खड़ी दम तोड़ दे और शायद वही अंत हो।
- श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी ईमेल : hajgaybeeanjali@gmail.com
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