हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।
दीवाली : हिंदी रुबाइयां (काव्य)    Print  
Author:उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
 

सब ओर ही दीपों का बसेरा देखा,
घनघोर अमावस में सवेरा देखा।
जब डाली अकस्मात नज़र नीचे को,
हर दीप तले मैंने अँधेरा देखा।।

तुम दीप का त्यौहार मनाया करते,
तुम हर्ष से फूले न समाया करते।
क्या उन्हें भी देखा है इसी अवसर पर,
जो दीप नहीं, दिल हैं जलाया करते।।

हम घर को दीपों से सजा लेते हैं,
इतना भी न अनुमान लगा लेते हैं।
इस देश में कितने ही अभागे हैं, जो
घर फूँक के दीवाली मना लेते हैं।।

इक दृष्टि बुझे दीप पे जो डाली थी,
कुछ भस्म पतंगों की पड़ी काली थी।
पूछा जो किसी से तो वह हँस कर बोला,
मालूम नहीं? रात को दीवाली थी।।

कैसा प्रकाश पर्व है यह दीवाली?
जलते हैं दिये रात मगर है काली।
तुम देश के लोगों की दशा मत पूछो,
उजला है वेष जेब मगर है खाली।।

हे लक्ष्मी! तुम्हें माँ हैं पुकारा करते,
तुमको हैं सभी पुत्र रिझाया करते।
पर प्यार धनी से है न निर्धन से तुम्हें,
ये भेद नहीं माँ को सुहाया करते।।

दीवाली में हर्षित हैं सभी हलवाई,
फुलझड़ियों पटाखों से हवा गरमाई।
बच्चों की माँग पूरी करेंगे कैसे?
मुँह बाये खड़ी शहर में है महँगाई।।

कुछ यों प्रकाश पर्व मना कर देखो,
अज्ञान-तमस को भी मिटा कर देखो।
माटी के सदा दिये जलाने वालों,
मन के भी कभी दिये जलाकर देखो।।

-उदयभानु हंस
(हिंदी रुबाइयां, गुरु जम्भेश्वर प्रकाशन)

[हरियाणा के राजकवि थे जिन्हें हिंदी रुबाई  सम्राट के रूप में जाना जाता है।]

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश