हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।
मातृ-वंदना (काव्य)    Print  
Author:डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
 

कंठ तेरे हैं अनेकों, स्वर तुम्हारा एक है,
स्वर तुम्हारे पूज्यपादों में भी मेरा एक है।
कंठ सारे एक होकर, गान तेरा ही करें,
भू-जगत् की पूज्यमाता, कष्ट-दुख सब ही हरें।
माँ तुम्हारे शीश अगणित, एक सिर मेरा भी है,
चरण-कमलों में तेरे माँ, एक यह चेहरा भी है।
सैकड़ों मस्तक चढ़े माँ, मैं भी उनमें एकहूँ,
चाहता हूँ वंद्य माँ मैं, क्षण व कण प्रत्येक दूँ।
एक लय में गीत तेरे, सब पुकारें माँ तुम्हें,
सुरभि अमृतरस सभी, बाँट दो माता हमें।
हाथ अनगिन कर रहे हैं, वंदना माँ की अभी
हाथ हैं उनमें भी मेरे, पुत्र तेरे जो सभी।
कोटि चरणों से सुशोभित, पूत तेरे बढ़ रहे,
वत्सले! मन के हमारे, दीप सारे चढ़ रहे।
पुत्र मैं हूँ माँ तुम्हारा, तुम मुझे स्वीकार लो,
पूर्ण अर्पित बाल तेरा, माँ मुझे अब तार दो।

-रमेश पोखरियाल ‘निशंक'
    [मातृभूमि के लिए]

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश