नील आकाश में बहते हैं मेघदल, श्वेत कृष्ण बहुरंग, तारतम्य उनमें तारल्य का दीखता, पीत भानु-मांगता है विदा, जलद रागछटा दिखलाते ।
बहती है अपने ही मन से समीर, गठन करता प्रभंजन, गढ़ क्षण में ही, दूसरे क्षण में मिटता है, कितने ही तरह के सत्य जो असम्भव हैं - जड़ जीव, वर्ण तथा रूप और भाव बहु ।
आती वह तुलाराशि जैसी, फिर बाद ही लखो महानाग, देखो विक्रम दिखाता सिंह, लखो युगल प्रेमियों को, किन्त मिल जाते सब अन्त में आकाश में ।
नीचे सिन्धु गाता बहु तान, महीमान किंतु नहीं वह, भारत, तुम्हारी अम्बुराशि विख्यात है, रूप-राग जलमय हो जाते हैं, गाते हैं यहाँ किन्तु करते नहीं गर्जन।
- स्वामी विवेकानंद [ विवेकानन्द साहित्य] 'सागर के वक्ष पर' स्वामीजी की बंग्ला कविता, 'सागरे वक्षे' का अनुवाद है। नीचे हम अँग्रेज़ी कविता भी प्रकाशित कर रहे हैं ताकि आप इसे भी पढ़ सकें।
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On the Sea's Bosom
In blue sky floats a multitude of clouds -- White, black, of many shades and thicknesses; An orange sun, about to say farewell, Touches the massed cloud-shapes with streaks of red.
The wind blows as it lists, a hurricane Now carving shapes, now breaking them apart: Fancies, colours, forms, inert creations -- A myriad scenes, though real, yet fantastic.
There light clouds spread, heaping up spun cotton; See next a huge snake, then a strong lion; Again, behold a couple locked in love. All vanish, at last, in the vapoury sky.
Below, the sea sings a varied music, But not grand, O India, nor ennobling: Thy waters, widely praised, murmur serene In soothing cadence, without a harsh roar.
- Swami Vivekananda |