मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
 
डॉ भावना कुँअर के हाइकु  (काव्य)       
Author:भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

अकेला बीज
धरती से मिलके 
फूटा खिलके।

बढ़ने लगा 
बनकर वो पौधा
खिलने लगा।

जैसे ही चढ़ा
यौवन-दहलीज़
आँख में गड़ा।

निर्मम हाथ
काटने चल पड़े
आरी ले साथ।

सहता रहा
‘मत काटो मुझको’-
कहता रहा।

नहीं पसीजे 
बेरहम मानव
किया तांडव।

न रुके हाथ
यूँ ही करते गए
घात पे घात।

हरा वो पेड़
पल भर में बना
घास का ढेर।

दूर जा गिरा
पंछियों का घरौंदा
छितरा पड़ा।

सुन न सका
पंछियों का क्रन्दन
पाहन मन।

बिसरी राह
ठंडी पवन अब
कोई न चाह।

छाया उदास
भटके यहाँ वहाँ
पेड़ न साथ।

मुँह फुलाए
घूमता घर-घर 
दुःखी बादल।

खोजता फिरे
रुआँसा-सा पथिक
है मित्र कहाँ?

डॉ भावना कुँअर
संपादक, ऑस्ट्रेलियांचल
ऑस्ट्रेलिया
ई-मेल: bhawnak2002@gmail.com

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