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फेसबुक बनाम फेकबुक
'फेसबुक' में
'बुक' तो ठीक है, पर...
'फेस'- 'फेक' है,
क्योंकि--
होता कुछ है, बताते कुछ हैं
करते कुछ हैं, दिखाते कुछ हैं।
यहाँ, हर कोई
खुशहाल दीखता है।
वास्तव में,
ऐसा होता नहीं है--
जिसकी अम्मा और बीवी
हररोज लड़ती हैं,
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न्यूज़ीलैंड में हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी
लगभग 50 लाख की जनसंख्या वाले न्यूज़ीलैंड में अँग्रेज़ी और माओरी न्यूज़ीलैंड की आधिकारिक भाषाएं है। यहाँ सामान्यतः अँग्रेज़ी का उपयोग किया जाता है।
यद्यपि अंग्रेजी न्यूजीलैंड में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है तथापि माओरी और न्यूजीलैंड सांकेतिक भाषा, दोनों को औपचारिक रूप से न्यूजीलैंड की आधिकारिक भाषाओं के रूप में संवैधानिक तौर पर विशेष दर्जा प्राप्त है। यहाँ के निवासियों को किसी भी कानूनी कार्यवाही में माओरी और न्यूजीलैंड सांकेतिक भाषा का उपयोग करने का अधिकार है।
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बालेश्वर अग्रवाल : यादों के झरोखों से
यादों के झरोखों से
स्व. बालेश्वर अग्रवाल जी ने विश्व भर में प्रवासियों एवं हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए ऐतिहासिक कार्य किया है। विश्व भर में उनके प्रति आदर का भाव रखने वाले लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। बहुत से लोगों को शायद इसका ज्ञान न हो कि आज का प्रवासी मंत्रालय बालेश्वर जी की ही देन है।
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हम भी काट रहे बनवास
हम भी काट रहे बनवास
जावेंगे अयोध्या नहीं आस
पडूं रावण पर कैसे मैं भारी
नहीं लक्ष्मण भी है मेरे पास
यहाँ रावण-विभीषण हैं साथ
करूं लँका का कैसे मैं नास
कौन फूँकेगा सोने की लँका
यहाँ है कहाँ हनुमन-सा दास
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बाबा | हास्य कविता
दूर बस्ती से बाहर
बैठा था एक फ़क़ीर
पेट से भूखा था
तन कांटे सा सूखा था।
बस्ती में फ़क़ीर की ऐसी हवा है
कहते हैं -
बाबा के पास हर मर्ज़ की दवा है।
आस-पास मिलने वालों की भीड थी
कोई लाया फूल, किसी के डिब्बे मे खीर थी।
फ़क़ीर से माँग रहे थे वे सब
...
उसे कुछ मिला, नहीं !
कूड़े के ढेर से
कुछ चुनते हुए बच्चे को देख
एक चित्रकार ने
करूणामय चित्र बना डाला।
कवि ने
एक मार्मिक रचना
रच डाली।
एक कहानीकार ने
'उसी बच्चे' पर
कालजयी
कहानी कही।
जनता ने
प्रदर्शनी में चित्र,
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भिखारी| हास्य कविता
एक भिखारी दुखियारा
भूखा, प्यासा
भीख मांगता
फिरता मारा-मारा!
'अबे काम क्यों नहीं करता?'
'हट......हट!!'
कोई चिल्लाता,
कोई मन भर की सीख दे जाता।
पर.....पर....
भिखारी भीख कहीं ना पाता!
भिखारी मंदिर के बाहर गया
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संवाद | कविता
"अब तो भाजपा की सरकार आ गई ।"
मैंने उस गुमसुम रिक्शा वाले से संवाद स्थापित किया ।
भाजपा आए या कांग्रेस जाए..
हमें क्या फर्क पड़ता है?
दो जून की कमाने के लिए
हमें तो तिल-तिल मरना पड़ता है ।
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