वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।
 
डॉ॰ धनीराम प्रेम | ब्रिटेन

धनीराम प्रेम का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के दरियापुर नामक गाँव में 12 नवंबर, 1904 को हुआ था। वे अभी दो वर्ष के भी नहीं थे कि उनके माता-पिता दोनों का बारी-बारी निधन हो गया।

बालक धनीराम महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर, इसमें शामिल हुए और 14 वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले उन्हें दो बार गिरफ्तार किया जा चुका था। बाद में मुंबई से मेडिकल की पढ़ाई पूरी की और लंदन से उच्च अध्ययन किया।

धनी राम प्रेम, जिन्हें धनी प्रेम के नाम से जाना जाता है, भारतीय मूल के एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। वे एक डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता और ब्रिटिश नागरिक थे। डॉ॰ धनीराम प्रेम को 1977 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया। वह बर्मिंघम के एशियाई मूल के पहले पार्षद थे। कहा जाता है कि डॉ॰ धनीराम प्रेम को ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर के ब्रिटिश सम्मान के लिए चुना गया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने 1978 में एस्टन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त ली थी।

हालांकि उन्होंने लंदन से मेडिकल की उच्च शिक्षा पाई थी लेकिन जब वे 1930 के दशक में भारत वापस आए तो वे चिकित्सा क्षेत्र में नौकरी पाने में असफल रहे। यह वही समय था जब वे 'चाँद' पत्रिका के संपादक बने। उस समय तक उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था। शादी करने के बाद 1938 में वे फिर लंदन चले गए और अगले वर्ष बर्मिंघम में एक चिकित्सक के रूप में अपना जीवन आरंभ किया। वे राजनीति में भी सक्रिय हो गए। उन्होंने एक राजनेता और नेता के रूप में पहचान अर्जित की।

एक सड़क दुर्घटना में 11 नवंबर 1979 को 75 वर्ष की आयु में डॉ॰ धनीराम प्रेम का निधन हो गया।

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देवता

कजा ने जब से होश संभाला था, तभी से उसके कान में इन शब्दों की झँकार सुनाई दी थी कि ‘पति देवता है।’ उसकी बहिनों के विवाह हुए थे, तब उसकी माता ने उन्हें यही पाठ पढ़ाया था। उसकी सहेलियाँ जब ससुराल के लिए विदा हो रही थीं, तब भी उसने इन्हीं पवित्र वाक्यों को सुना था। वह समझने लगी थी कि 'पति देवता है।' यह एक महामन्त्र था और विवाह के सूत्र में बँधने वाली प्रत्येक बालिका के लिए उस मन्त्र की दीक्षा लेना और जीवन-पर्यन्त उसे जपते रहने की आवश्यकता थी। इस प्रकार के वातावरण में पलने वाली अन्य बालिकाएँ इस मन्त्र को सुनती थीं और फिर भूल जाती थीं। कुछ उसे सुन कर उस पर हँस देती थीं। इसलिए नहीं कि उनके मन में उपेक्षा या घृणा के भाव उत्पन्न हो जाते थे, बल्कि इसलिए कि वे उस मन्त्र को एक रूढ़ि समझती थीं; एक लकीर, जिसको पीटना वे प्रत्येक स्त्री के जीवन का कर्तव्य समझती थीं, कुछ के लिए इस मन्त्र का समझना कठिन था, उसी प्रकार जिस प्रकार एक अबोध ब्राह्मण के लिए गीता के श्लोक। परन्तु न समझने पर भी वह ब्राह्मण नित्य उनका जाप करता है, केवल इसीलिए कि उसे वह आवश्यक समझता है, इस लोक के लिए तथा परलोक के लिए उसी प्रकार ये बालिकाएँ भी बिना समझे अपने मूलमन्त्र का जाप करती थीं, केवल इसीलिए कि ऐसा करना इहलोक तथा परलोक के लिए आवश्यक बताया जाता था।

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