तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? सब द्वारों पर भीड़ मची है, कैसे भीतर आऊं मैं? द्वारपाल भय दिखलाते हैं, कुछ ही जन जाने पाते हैं, शेष सभी धक्के खाते हैं, क्यों कर घुसने पाऊं मैं? तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? तेरी विभव कल्पना कर के, उसके वर्णन से मन भर के, भूल रहे हैं जन बाहर के कैसे तुझे भुलाऊं मैं? तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? बीत चुकी है बेला सारी, किंतु न आयी मेरी बारी, करूँ कुटी की अब तैयारी, वहीं बैठ गुन गाऊं मैं। तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? कुटी खोल भीतर जाता हूँ, तो वैसा ही रह जाता हूँ, तुझको यह कहते पाता हूँ- 'अतिथि, कहो क्या लाऊं मैं?' तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं?
- मैथिलीशरण गुप्त
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