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पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा। हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा। बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती। कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद, जिसका पावन नामही। इक्कीस कोटि जन पूजिता, हिन्दी भाषा है वही ।। 1 ।।
जिसने जग में जन्म दिया और पोसा, पाला। जिसने यक यक लहु बूँद में जीवन डाला। उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी। उसके उर से लग जिसकी मधुराई चीखी। जिसके तुतला कर कथन से, घर में धार सुधा बही। क्या उस भाषा का मोह कुछ, हम लोगों को है नहीं ।। 2 ।।
दो सूबों के भिन्न भिन्न बोली वाले जन। जब करते हैं खिन्न बने, मुख भर अवलोकन। जो भाषा उस समय काम उनके है आती। जो समस्त भारत भू में है समझी जाती। उस अति सरला उपयोगिनी, हिन्दी भाषा के लिए। हम में कितने हैं जिन्होंने, तन मन धन अर्पन किये ।। 3 ।।
गुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया। औ कबीर ने जिसमें अनहद नाद सुनाया। प्रेम रंग में रँगी भक्ति के रस में सानी। जिस में है श्रीगुरु नानक की पावन बानी। हैं जिस भाषा से ज्ञान मय आदि ग्रंथसाहब भरे। क्या उचित नहीं है जो उसे निज सर आँखों पर धरे ।।4।।
करामात जिस में है चंद-कला दिखलाती। जिस में है मैथिल कोकिलकाकली सुनाती। सूरदास ने जिसेमें सर बर सुधा बनाया। तुलसी ने जिस में सुर पादप फलद लगाया। जिसमें जग पावन पूत तम रामचरित मानस बना। क्या परम प्रेम से चाहिये उसे न प्रति दिन पूजना ।। 5 ।।
बहुत बड़ा अति दिव्य अलौकिक परम मनोहर। दशम ग्रंथ साहब समान वर ग्रंथ विरच कर। श्री कलँगीधर ने जिसमें निज कला दिखाई। जिसमें अपनी जगत चकित कर जोति जगाई। वह हिन्दी भाषा दिव्यता- खनि अमूल्य मणियों भरी। क्या हो नहीं सकती है सकल भाषाओं की सिर धरी ।। 6 ।।
अति अनुपम अति दिव्य कान्त रत्नों की माला। कवि केशव ने कलित कंठ में जिसके डाला। पुलक चढ़ाये कुसुम बड़े कमनीय मनोहर। देव बिहारी ने जिसके युग कमल पगों पर। आँख खुले पर वह भला लगेगी न प्यारी किसे। जगमगा रही है जो किसी भारतेन्दु की जोति से ।। 7 ।।
वैष्णव कविकुल मुख प्रसूत आमोद विधाता। जिसमें है अति सरस स्वर्ग संगीत सुनाता। भरा देश हित से था जिसके कर का तूँबा। गिरी जाति के नयन सलिल में था जो डूबा। वह दयानन्द नव युग जनक जिसका उन्नायक रहा। उस भाषा का गौरव कभी क्या जा सकता है कहा ।। 8 ।।
महाराज रघुराज राज विभवों में रहते। थे जिसके अनुराग तरंगों ही में बहते। राज विभव पर लात मार हो परम उदासी। थे जिसके नागरी दास एकान्त उपासी। वह हिन्दी भाषा बहु नृपति वृन्द पूजिता वन्दिता। कर सकती है उन्नति किये वसुधा को आनन्दिता ।। 9।।
वे भी हैं है जिन्हें मोह हैं तन मन अर्पक। हैं सर आँखों पर रखने वाले, हैं पूजक। हैं बरता बादी, गौरव-विद उन्नति कारी। वे भी हैं जिनको हिन्दी लगती है प्यारी। पर कितने हैं, वे हैं कहाँ जिनको जी से है लगी। हिन्दू जनता नहिं आज भी हिन्दी के रँग में रँगी।10।
एक बार नहिं बीस बार हमने हैं जोड़े। पहले तो हिन्दू पढ़ने वाले हैं थोड़े। पढ़ने वालों में हैं कितने उर्दू-सेवी। कितनों की हैं परम फलद अंग्रेजी देवी। कहते रुक जाता कंठ है नहिं बोला जाता यहाँ। निज आँख उठाकर देखिए हिन्दी-प्रेमी हैं कहाँ?।11।
अपनी आँखें बन्द नहीं मैंने कर ली हैं। वे कन्दीलें लखीं जो तिमिर बीच बली हैं। है हिन्दी-आलोक पड़ा पंजाब-धारा पर। उससे उज्ज्वल हुआ राज्य इन्दौर, ग्वालिअर। आलोकित उससे हो चली राज-स्थान-बसुंधरा। उसका बिहार में देखता हूँ फहराता फरहरा।12।
मध्य-हिन्द में भी है हिन्दी पूजी जाती। उसकी है बुन्देलखण्ड में प्रभा दिखाती। वे माई के लाल नहीं मुझ को भूले हैं। सूखे सर में जो सरोज के से फूले हैं। कितनी ही आँखें हैं लगी जिन पर आकुलता-सहित। है जिनके सौरभ रुचिर से सब हिन्दी-जग सौरभित।13।
है हिन्दी साहित्य समुन्नत होता जाता। है उसका नूतन विभाग ही सुफल फलाता। निकल नवल सम्वाद-पत्र चित हैं उमगाते। नव नव मासिक मेगजीन हैं मुग्ध बनाते। कुछ जगह न्याय-प्रियतादि भी खुलकर हिन्दी हित लड़ीं। कुछ अन्य प्रान्त के सुजन की आँखें भी उस पर पड़ीं।14।
किन्तु कहूँगा अब तक काम हुआ है जितना। वह है किसी सरोवर के कुछ बूँदों इतना। जो शाला, कल्पना-नयन सामने खड़ी है। अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है। अब तक उसका कलका कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला। हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला फला।15।
बहुत बड़ा पंजाब औ यहाँ का हिन्दू-दल। है पकड़े चल रहा आज भी उरदू-आँचल। गति, मति उसकी वही जीवनाधार वही है। उसके उर-तंत्री का धवनि मय तार वही है। वह रीझ रीझ उसके बदन की है कान्ति विलोकता। फूटी आँखों से भी नहीं हिन्दी को अवलोकता।16।
मुख से है जातीयता मधुर राग सुनाता। पर वह है सोहराव और रुस्तम गुण गाता। उमग उमग है देश-प्रेम की बातें करता। पर पारस के गुल बुलबुल का है दम भरता। हम कैसे कहें उसे नहीं हिन्दू-हित की लौ लगी। पर विजातीयता-रंग में है उसकी निजता रँगी।17।
भाषा द्वारा ही विचार हैं उर में आते। वे ही हैं नव नव भावों की नींव जमाते। जिस भाषा में विजातीय भाव ही भरे हैं। उसमें फँस जातीय भाव कब रहे हरे हैं। है विजातीय भाव ही का हरा भरा पादप जहाँ। जातीय भाव अंकुरित हो कैसे उलहेगा वहाँ।18।
इन सूबों में ऐसे हिन्दू भी अवलोके। जिनकी रुचि प्रतिकूल नहीं रुकती है रोके। वे होमर, इलियड का पद्य-समूह पढ़ेंगे। टेनिसन की कविता कहने में उमग बढ़ेंगे। पर जिसमें धाराएँ विमल हिन्दू-जीवन की बहीं। वह कविता तुलसी सूर की मुख पर आतीं तक नहीं।19।
मैं पर-भाषा पढ़ने का हूँ नहीं विरोधी। चाहिए हो मति निज भाषा भावुकता शोधी। जहाँ बिलसती हो निज भाषा-रुचि हरियाली। वही खिलेगी पर-भाषा-प्रियता कुछ लाली। जातीय भाव बहु सुमन-मय है वर उर उपवन वही। हों विजातीय कुछ भाव के जिसमें कतिपय कुसुम ही।20।
है उरके जातीय भाव को वही जगाती। निज गौरव-ममता-अंकुर है वही उगाती। नस नस में है नई जीवनी शक्ति उभरती। उस से ही है लहू बूँद में बिजली भरती। कुम्हलाती उन्नति-लता को सींच सींच है पालती। है जीव जाति निर्जीव में निज भाषा ही डालती।21।
उस में ही है जड़ी जाति-रोगों की मिलती। उस से ही है रुचिर चाँदनी तम में खिलती। उस में ही है विपुल पूर्वतन-बुधा-जन-संचित। रत्न-राजि कमनीय जाति-गत-भावों अंकित। कब निज पद पाता है मनुज निजता पहचाने बिना। नहिं जाती जड़ता जाति की निज भाषा जाने बिना।22।
गाकर जिनका चरित जाति है जीवन पाती। है जिनका इतिहास जाति की प्यारी थाती। जिनका पूत प्रसंग जाति-हित का है पाता। जिनका बर गुण बीरतादि है गौरव-दाता। उनकी सुमूर्ति महिमामयी बंदनीय विरदावली। निज भाषा ही के अंक में अंकित आती है चली।23।
उस निज भाषा परम फलद की ममता तज कर। रह सकती है कौन जाति जीती धरती पर। देखी गयी न जाति-लता वह पुलकित किंचित। जो निज-भाषा-प्रेम-सलिल से हुई न सिंचित। कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा। जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।24।
हे प्रभु अपना प्रकृत रूप सब ही पहचाने। निज गौरव जातीय भाव को सब सनमाने। तम में डूबा उर भी आभा न्यारी पावे। खुलें बन्द आँखें औ भूला पथ पर आवे। निज भाषा के अनुराग की बीणा घर घर में बजे। जीवन कामुक जन सब तजे पर न कभी निजता तजे।25।
- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
[ यह रचना पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग में पढ़ी थी ।]
छप्पय (छ्प्पै) मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पाद तथा उल्लाला (15+13) के दो पाद के योग से बनता है। |