बौड़म दास को मैं क़रीब से जानता था । हमारा गाँव चैनपुर भैरवी नदी के किनारे बसा हुआ है । उसके दूसरे किनारे पर बसा है धरहरवा गाँव । साल के बाक़ी समय में यह नदी रिबन जैसी पतली धारा-सी बहती है । पर बरसात का मौसम आते ही यह नदी विकराल रूप धारण कर लेती है । बाढ़ के मौसम में इसका दूसरा किनारा भी नज़र नहीं आता । बरसात का मौसम छोड़ दें तो गाँव के लोग इसी नदी के किनारे नहाते हैं । यहीं किनारे के पत्थरों पर कपड़े धुलते हैं । थोड़ी दूरी पर मवेशी और ढोर-डंगर प्यास बुझाने आते हैं । यहीं गाँव के बच्चे चपटे पत्थरों से नदी के पानी में 'छिछली' खेलते हुए बड़े होते हैं ।
इसी गाँव की चमार-बस्ती में कई साल पहले काँसी नाम का एक दलित रहता था । लेकिन वह चमड़े का पुश्तैनी काम नहीं करता था । खेत-खलिहानों में मेहनत-मज़दूरी करता था । नाटी देह , साँवला रंग और मुँह पर चेचक के दाग़ । काँसी की बीवी पुतली नेक औरत थी । जो रूखा-सूखा मिलता था, उसी में गुज़ारा कर लेती थी । इन्हीं की औलाद था बौड़म ।
बौड़म का बचपन बहती नाक पर भिनभिनाती मक्खियों के साये में बीता । रोज़ाना माँड़ और कभी-कभार बकरी का दूध पी कर वह बड़ा हो रहा था । धूल-माटी में सने बौड़म ने बचपन में ही भविष्य की झलक दिखलानी शुरू कर दी थी । ग़रीबी और भूख से परेशान पिता काँसी कभी-कभार किसी खेत से चुपके से भुट्टा तोड़ लाता, या गाजर-मूली उखाड़ लाता । एक बार जब काँसी बौड़म के सामने भी यही काम कर रहा था तो छह-सात साल के बौड़म ने पिता को डाँट दिया -- " बाबू , इ चोरी है । इ गंदी बात है । नाहीं करो । "
बालक बौड़म के मुँह से यह बात सुनकर काँसी हैरान रह गया । बोला --"तोहरे ख़ातिर तो कर रहे हैं । नहीं करेंगे तो खाएगा क्या ?"
बौड़म बोला -- "अम्मा कहती है, चोरी करने से अच्छा है, भूखे रहें । खाना हो तो सिरफ मेहनत-मजदूरी के पैसे से खाएँ ।"
बेटे का उपदेश सुनकर काँसी को ग़ुस्सा आ गया । उसने वहीं बौड़म की पिटाई कर दी । " स्साले , ग़रीब की औलाद है । राजा हरिश्चंदर मत बन ! "
कहते हैं, किस्मत का ताला जब खुलता है , तब क्या-से-क्या हो जाता है । एक बार एक दलित पार्टी के नेता चुनाव के समय वोट माँगने गाँव में आए । उन्हें बालक बौड़म भा गया । जलसे के बाद गाँव से जाते समय वे लोग काँसी और पुतली से बात करके बालक बौड़म को शहर के स्कूल में पढ़ाने के लिए अपने साथ ले गए । काँसी की ख़ुशी का ठिकाना न था । उसका बेटा पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनेगा , यह सोच उसे बहुत खुशी दे रही थी । बौड़म की बेहतरी के लिए उसकी माँ पुतली ने भी अपने कलेजे पर पत्थर रख कर इस बात के लिए हामी भर दी ।
गाँव में हमारे पास काफ़ी पुश्तैनी ज़मीन थी । लेकिन खेती-बाड़ी का सारा काम चाचाजी देखते थे । बँटाई पर काम होता था । पिताजी शहर के स्कूल में शिक्षक थे । जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो पिताजी ने मेरा नाम भी शहर के स्कूल में लिखवा दिया । मैं पिताजी के साथ ही शहर में रहता था । उन्हीं के साथ छुट्टियों मे गाँव आया-जाया करता था । संयोग से पढ़ने के लिए बौड़म का दाख़िला भी मेरे ही स्कूल में हुआ , वह भी मेरी ही कक्षा में । जात-पात में मेरा कोई विश्वास नहीं था । लिहाज़ा एक ही गाँव के होने के कारण धीरे-धीरे बौड़म से मेरी जान-पहचान मित्रता में बदल गई । बौड़म का नाम स्कूल में बौड़म दास लिखवा दिया गया । बौड़म दास नियम-क़ायदों का पालन करने वाला विद्यार्थी था । सच्चाई और ईमानदारी उसमें कूट-कूट कर भरी थी । उसकी आँखों में सदा जैसे सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की श्वेत-श्याम तस्वीर बसी रहती । कभी-कभी मैं सोचता कि पता नहीं उसके डी.एन.ए. में सच्चाई की यह जीन्स कहाँ से आई थी । फिर लगता कि शायद उसे यह अपनी माँ पुतली से अानुवंशिकी में मिली होगी । पर इसकी वजह से वह कई बार मुसीबत में पड़ जाता । बौड़म परीक्षा में नक़ल करने को पाप समझता था । एक बार कक्षा के कई बच्चे सालाना परीक्षा में धड़ल्ले से नक़ल कर रहे थे । जब बौड़म दास से उनके नाम पूछे गए तो उसने सब कुछ सच-सच बता दिया । उसकी निशानदेही पर सारे नक़ल करने वाले लड़कों को पकड़ लिया गया । बदले में उन सभी ने बौड़म दास को स्कूल के बाहर पकड़ लिया और जम कर उसकी धुनाई कर दी । मार खाने की वजह से उसकी एक आँख सूज गई । होठों से ख़ून बहने लगा । वह तो मैंने बीच-बचाव कर दिया नहीं तो पता नहीं बौड़म का क्या होता । बाद में मैंने उसे समझाया भी कि भाई , तू अपने काम से काम रखता । सत्यवादी बनने के चक्कर में नाहक मार खा ली । पर बौड़म कहाँ मानने वाला था । एक बार बौड़म ने मोहल्ले में दूध बेचने वाले ग्वाले रामनरेस को दूध में पानी मिलाते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया । तब ईमानदारी पर दिए गए बौड़म के प्रवचन से चिढ़ कर रामनरेस ने उसे पीट दिया । वहाँ भी मैं ही बौड़म को ज़्यादा मार खाने से पहले बचा ले गया । लेकिन मैं उसे किस-किस से बचाता । अगले हफ़्ते उसने किरयाने की दुकान चलाने वाले गुप्ता से पंगा ले लिया । गुप्ता रोज़मर्रा के सामानों में मिलावट करता था । उसने अपने तराज़ू में भी हेर-फेर कर रखा था । लेकिन इलाक़े के हवलदार बिसेसर सिंह से उसकी दोस्ती की बात सब जानते थे । इसलिए कोई खुलकर गुप्ता की शिकायत नहीं करता था । पर हमारे सत्यवादी भाई बौड़म कहाँ मानने वाले थे । एक दिन उन्होंने गुप्ता को आईना दिखाना शुरू किया । ज़ाहिर है , गुप्ता जी को बौड़म के आईने में दिख रही अपनी छवि अच्छी नहीं लगी । पहले गुप्ता और उसके लड़कों ने बौड़म को पीट दिया । फिर गुप्ता ने हवलदार बिसेसर की मदद से दुकान में चोरी करने के झूठे इल्ज़ाम में बौड़म को फँसाने की कोशिश की । वह तो दलित पार्टी वाले नेताजी ने जुगाड़ लगा कर बौड़म को जेल जाने से बचाया और पुलिस वालों को कुछ दे-दिला कर मामला रफ़ा-दफ़ा करवाया । मुझे जब सारी बात पता चली तो मैंने फिर उसे समझाया कि भाई तू पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे । अपना जीवन बना । यह सब तो चलता रहता है । पर मेरी बातों का बौड़म पर कोई असर ही नहीं हुआ । धीरे-धीरे लोगों की बौड़म के बारे में यह धारणा बन गई कि वह किसी भी तरह अपना काम निकालने के आज के युग में एक ' मिसफ़िट' था । अपना काम करवाने के लिए वह न किसी की चमचागिरी करता था , न किसी को तोहफ़े देता था । बेईमानी और भ्रष्टाचार से उसका ईंट-कुत्ते का वैर था । एक साल बौड़म ने स्कूल में छात्रों के दाख़िले को ले कर कुछ अध्यापकों और कर्मचारियों द्वारा चलाई गई भ्रष्ट मिली-भगत का भंडा-फोड़ कर दिया । इस पर उन लोगों ने उसे स्कूल परिसर के बाहर गुंडों से पिटवा दिया । उसका दायाँ बाज़ू टूट गया था । उस दौरान भी मैंने उसकी सहायता की । उसे समझाने-बुझाने का प्रयास किया । पर हालात जस के तस रहे । वह नहीं बदला । ऐसा नहीं था कि बौड़म के कारनामों से मुझे ख़ुशी नहीं होती थी । जब भी वह किसी बेईमान या भ्रष्टाचारी का भंडा फोड़ता था , मैं मन-ही-मन बेहद खुश होता था । लेकिन वह मेरा मित्र भी था । उसे हर बार पिटता हुआ देखना मेरे लिए असह्य हो जाता था । मैं चाहता था कि उसका कोई अहित न हो ।
धीरे-धीरे किसी मालगाड़ी के एक के बाद एक लगातार आते डिब्बों की तरह बौड़म के जीवन में अनेक ऐसी घटनाएँ हुईं जिन्होंने उसे शारीरिक और मानसिक रूप से आहत किया । राजनीति में सच्चाई और ईमानदारी का भला क्या काम था । अब बौड़म बारहवीं कक्षा में पढ़ रहा था । बौड़म के अभिभावक दलित नेता ने चाहा कि बारहवीं करने के बाद बौड़म राजनीति के दाँव-पेंच सीख कर पार्टी की मदद करे । किंतु बौड़म न तो झूठ बोल सकता था , न हेरा-फेरी कर सकता था । वह न तो गुंडागर्दी कर सकता था न जात-पात के नाम पर नेताजी की पार्टी को वोट दिलवा सकता था । उसके आदर्शों के सहारे चुनाव नहीं जीते जा सकते थे । उसे अपने और पार्टी के किसी काम का न पा कर दलित नेता ने अपने हाथ पीछे खींच लिए । बौड़म की आर्थिक मदद बंद कर दी गई । तब बौड़म ने छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर अपना गुज़ारा किया । इस दौरान मैंने भी उसकी थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद की । बौड़म की हरकतों से उसका पिता काँसी बहुत आहत हुआ । उसे उम्मीद थी कि बौड़म दलित नेता के साथ रह कर बड़ा आदमी बन जाएगा । पर होनी को कुछ और मंज़ूर था । उसी साल निमोनिया की गिरफ़्त में आ कर काँसी चल बसा । अगले साल हैज़ा उसकी माँ पुतली को लील गया । बौड़म चाह कर भी कुछ न कर सका । एक रात मेरे कमरे में आ कर वह बहुत रोया था । उसका चेहरा किसी उजड़े हुए खेत-सा लग रहा था । जैसे झुलसी हुई घास वाले किसी भूरे मैदान-सा हो गया था उसका जीवन । उसकी आँखों में एक सुनसान था । अपने भीतर के सन्नाटे में वह जैसे अकेला बज रहा था । मैंने उसे सलाह दी कि वह अपने पूर्व-अभिभावक दलित नेता की बात मानकर उसकी शरण में चला जाए । मैं चाहता था कि उसके जीवन में मुसीबतें कम हो जाएँ । लेकिन बौड़म अभी और पढ़ना चाहता था । पढ़ने-लिखने में वह मेधावी था ही । सभी मुश्किलों के बावजूद उसे कॉलेज में पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिल गई । फिर आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मैं महानगर चला आया । लेकिन बौड़म से मेरा नाता बना रहा । हम दोनो एक-दूसरे को चिट्ठियाँ लिखते थे । कभी-कभार फ़ोन पर बातचीत भी हो जाती थी । कई साल बीत गए । मुझे आइ.आइ.टी. दिल्ली में नौकरी मिल गई ।
अपनी पढ़ाई पूरी करके बौड़म भी दिल्ली आ गया था , और किसी सरकारी मंत्रालय में नौकरी करने लगा था । उन दिनों वह गाँधीजी के आदर्शों का हिमायती बन गया था । पता चला कि जहाँ वह नौकरी करता था , वहाँ भी भ्रष्ट और बेईमान सहकर्मियों के बीच वह खुश नहीं था । एक बार गर्मी की छुट्टियों में मैं माँ-बाबूजी से मिलने गाँव गया । मेरी शादी की बात चल रही थी । इत्तिफ़ाक़ से उन्हीं दिनों बौड़म भी गाँव आया हुआ था । काफ़ी बरसों के बाद मेरी वहीं उससे मुलाक़ात हुई । उन दिनों वह धुआँधार सिगरेट पीने लगा था । उसने बताया कि कॉलेज के दिनों में उसे किसी ऊँची जाति की लड़की से प्यार हो गया था । उसने उस लड़की को प्रोपोज़ भी किया था , पर जातियों का बार्ब्ड-वायर-फ़ेंस बीच में आ गया । लड़की के घरवालों ने गुंडों से बौड़म की बेरहमी से पिटाई करवाई और लड़की की शादी अपनी ही जाति में किसी से कर दी । मुझसे मिल कर बौड़म हिलक-हिलक कर रोया था । उसकी सुर्ख़ आँखों में सच्चाई और ईमानदारी के गरम आँसू थे । वह मुझे अपनी नौकरी की बातें बताता रहा । लोगों की बेईमानी और उनके भ्रष्टाचार के क़िस्से सुनाता रहा । बौड़म नहीं बदला था । वह अब भी उतना ही ईमानदार , उतना ही सत्यवादी और उतना ही नियम-क़ायदों को मानने वाला व्यक्ति था । लेकिन उसके आस-पास का भारत किसी और ही रंग में रंगा हुआ था । यह बेईमानी , मक्कारी , जालसाज़ी और अवसरवादिता का युग था । रिश्ते बेमानी होते जा रहे थे । इस युग का भगवान रुपया और कुर्सी थे । ऐसे युग में बौड़म खुद को अजनबी पाता था । उसकी बातों में मौजूद उसका दुख इतना रोशन था जैसे टूटे हुए काँच के टुकड़े पर धूप चमक रही हो । लगता था जैसे उसके भीतर के झरने और फ़व्वारे , सब सूखते चले गए थे । उसके अंतस के पेड़ की सारी चिड़ियाँ , सारी गिलहरियाँ जैसे मर गई थीं । सारी हरी फुनगियाँ जैसे सूख कर झर गई थीं । बौड़म मेरी शादी में नहीं आया । वह ज़रूर अपने भीतर-बाहर फँसा छटपटा रहा होगा । कई साल बीत गए । इस बीच मुझे दूसरे लोगों से पता चला कि बौड़म इस बेरहम ज़माने की चक्की में पिस रहा था । उसने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी । वह अब किसी अख़बार में काम करने लगा था । लेकिन हर ओर एक जैसे लोग ही थे । वे खुद कुछ कह रहे होते किंतु उनकी आँखें कुछ और ही बयाँ कर रही होतीं । उनके चरित्र में वैध-अवैध किसी भी तरीके से दुनियावी रूप में सफल होने की उत्कट भूख छिपी होती । सफल होने के लिए लोग मित्रों की पीठ में छुरा मार रहे थे , गधे को बाप और बाप को गधा बता रहे थे । ऐसे अवसरवादी , छलिया युग में बौड़म निश्चित रूप से एक मिसफ़िट था । इस बीच दो-दो वेतन आयोगों की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद मैंने नोएडा में एक फ़ोर बेडरूम फ़्लैट ख़रीद लिया था । मेरे बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ रहे थे । मेरी पत्नी हमारे रेज़ीडेंशियल सोसायटी की अध्यक्षा थी । ईश्वर की कृपा से मैंने एक एस.यू.वी. टोयोटा फ़ॉर्च्यूनर ख़रीद ली थी । नहीं , नहीं , यदि आप इससे यह अंदाज़ा लगाएँगे कि मेरे पास ब्लैक का पैसा था , तो यह ग़लत होगा । दरअसल हम जैसे मिड्ल-क्लास लोग अब थोड़ा-सा डाउन पेमेंट करके इंस्टाल्मेंट्स पर कुछ भी ख़रीद कर घर ला सकते थे । चार दिन की ज़िंदगी में सुविधाओं के लाभ उठा सकते थे । कई बरस बीत गए । मैं अपने जीवन में गुम था । अचानक एक दिन मेरे एक जानकार ने बताया कि बौड़म को कोई मानसिक बीमारी हो गई थी , जिसका वह इलाज करवा रहा था । अपनी पुरानी डायरी से मैंने बौड़म का नम्बर ढूँढ़ कर उसे फ़ोन लगाया । किंतु दूसरी ओर से बार-बार वही आवाज़ आई -- यह नम्बर अब मौजूद नहीं है । जान-पहचान वालों से बहुत खोज-बीन करने के बाद मुझे उसका नया नम्बर मिल पाया । फ़ोन करने पर दूसरी ओर से एक मद्धिम आवाज़ आई । जैसे तेज़ आँधी में कोई दीये की लौ बुझने-बुझने को हो । जैसे वह बौड़म की आवाज़ न हो , कई प्रकाश-वर्ष दूर के किसी आकाशगंगा से आता कोई विरल संकेत हो । उसने कहा कि वह बीमार था । वह फ़ोन पर ज़्यादा बात नहीं कर पा रहा था । उसकी बातें असम्बद्ध लग रही थीं । मेरे कई बार पूछने पर उसने अंत में अपने रहने की जगह का पता बताया । अगले रविवार को मैं बौड़म के रहने की जगह का पता ढूँढ़ते हुए उसके पास पहुँचा । वह महानगर के सस्ते , बदबू भरे इलाक़े अर्जुन विहार में किराए के एक कमरे में रहता था । तंग गलियों और खुली नालियों वाले इस इलाक़े में सम्भ्रांत लोग नहीं रहते थे । यह समाज के निचले तबके के लोगों के रहने की जगह थी । बौड़म को देखते ही मैं समझ गया कि उसकी हालत ठीक नहीं थी । उसका चेहरा इतना डरावना और अपरिचित लग रहा था कि आईना भी डर जाए । मुझे दुख हुआ । वह मेरे ही गाँव का था । मैं आज भी उसे अपना मित्र मानता था । पता चला कि अख़बार की नौकरी में भी वह अपने उसूलों पर अडिग रहा था । इसके कारण अख़बार के प्रबंधकों से उसकी खटपट रहती थी । यह भी पता चला कि वह महानगर के कुछ भ्रष्टाचारी नेताओं के खिलाफ़ सबूत जुटाने में लगा था ताकि उनके विरुद्ध कार्रवाई हो । लेकिन अख़बार के प्रबंधकों और इन भ्रष्टाचारी नेताओं के बीच मिली-भगत थी । उनके दबाव में बौड़म को नौकरी से निकाल दिया गया । फिर मानसिक तनाव की वजह से वह अवसाद-ग्रस्त हो गया । बौड़म ने मुझे बताया कि वह सरकारी अस्पताल के ओ. पी.डी. में अपना कामचलाऊ इलाज करा रहा था । लेकिन स्पष्ट था कि इस इलाज से उसे कोई विशेष फ़ायदा नहीं हो रहा था । वह जैसे एक ज़िंदा लाश में बदल गया था । मेरे बहुत समझाने के बाद ही बौड़म किसी साइकैट्रिस्ट के पास चलने के लिए तैयार हुआ । कुछ महीने हर इतवार मैं उसे ले कर नामी मनोरोग-चिकित्सक डॉ. भाटिया के पास जाता रहा । उन्होंने बौड़म की बीमारी के लक्षणों को सुनकर बताया कि उसे ' एक्यूट शिज़ोफ़्रीनिया ' हो गया है । ख़ैर , कुछ हफ़्तों के इलाज के बाद उसकी हालत में काफ़ी सुधार आया । उसे एक दूसरे अख़बार में नौकरी मिल गई । इस बीच मेरे बेटे की शादी तय हो गई थी । एक-डेढ़ महीने बाद की तिथि निकली थी । मैं शादी की तैयारी में व्यस्त हो गया । मैंने फ़ोन पर बौड़म को बेटे के विवाह में आने का निमंत्रण भी दिया । किंतु न जाने क्यों वह बेटे की शादी में नहीं आ पाया । बेटे की शादी हुए अभी दस-पंद्रह दिन ही हुए होंगे जब एक सुबह मुझे किसी जानकार का फ़ोन आया । उसने बताया कि बौड़म पर क़ातिलाना हमला हुआ था और उसकी हालत बहुत ख़राब थी । वह सरकारी अस्पताल के आइ. सी. यू. में भर्ती था । मैं चिंतित हो उठा । अस्पताल का पता खोजकर मैं वहाँ पहुँचा । बौड़म के पेट और छाती में चाकू से कई वार किए गए थे । उसकी हालत नाज़ुक थी । अपने नए अख़बार में उसने महानगर के कई भ्रष्ट नेताओं के घपलों की पोल खोल दी थी । शक था कि उन्हीं लोगों ने बौड़म की हत्या की सुपारी किन्हीं हत्यारों को दी थी । उसकी हालत देख कर मेरी आँखों में आँसू आ गए । सारी रात मैं आइ. सी. यू. के बाहर बैठा बौड़म के जीवन के लिए प्रार्थना करता रहा । किंतु शायद कलयुग में प्रार्थनाएँ भी बेअसर होती हैं । आख़िर जीवन की बिसात पर समय के मोहरों ने उसे मात दे दी । अगली सुबह सूर्योदय के समय बौड़म दास ने अपने प्राण त्याग दिये । जब उसने अंतिम साँस ली तब मैं उसके पास ही था । उसकी अंत्येष्टि में बहुत कम लोग आए । दरअसल इस दुनिया के राडार पर एक ब्लिप भी नहीं था बौड़म दास । मुझे लगा जैसे इस दुनिया की ओछी हरकतों से तंग आ कर वह दुनिया की ओर पीठ करके एक लम्बी नींद सो गया था । बौड़म के चरित्र में चट्टान-सा था सत्य । सारा जीवन वह अंश-अंश ढहता रहा । तीखे कोनों से टकरा कर छिलता रहा । किंतु उसने हार नहीं मानी । अपने उसूलों से समझौता नहीं किया । ईमानदारी की दाल-रोटी से बने हाड़-मांस के सहारे वह बेईमानी के काजू , बादाम और चिल्गोज़ों वाले समाज से अनवरत लड़ता रहा । उसके हम दो-चार मित्र उसके उदात्त मूल्यों और उसके जीवन-संघर्ष के साक्षी थे । हम मित्रों ने बौड़म की अंत्येष्टि के बाद उसकी अस्थियों को गाँव की भैरवी नदी में प्रवाहित कर दिया । उसी नदी में जिसके किनारे गाँव के बच्चों के साथ वह ' छिछली ' खेलता हुआ बड़ा हुआ था । नदी किनारे बैठे-बैठे मुझे बौड़म की याद बड़ी शिद्दत से आई । मेरी आँखें भर आईं । मेरे भीतर उसके लिए कुछ उमड़ा-घुमड़ा । आप इसे बौड़म के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धांजलि समझें : "किसी स्कूल के पाठ्य-पुस्तक में नहीं पढ़ाई जाती है जीवनी बौड़म दास की किसी नगर के चौराहे पर नहीं लगाई गई है प्रतिमा बौड़म दास की वह 'शाखा' में नहीं जाता था इसलिए प्रधानमंत्री उसे नहीं जानते हैं वह 'वाद' के खूँटे से नहीं बँधा था इसलिए किसी भी पंथ के समर्थक उसे नहीं जानते हैं उसने कभी किसी का हक़ नहीं मारा कभी किसी की जड़ नहीं काटी कभी किसी की चमचागिरी नहीं की कभी न रिश्वत ली, न दी इस युग में प्रगति की राह में ये गम्भीर ख़ामियाँ थीं उसके पास एक चश्मा और एक लाठी थी वह बकरी के दूध को स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम बताता था और अकसर इलाक़े में इधर-उधर पड़ा कूड़ा-कचरा बीन कर कूड़ेदान में फेंकते हुए देखा जाता था ... जानकारों के अनुसार अकसर राजघाट पर गाँधीजी की समाधि पर जा कर घंटों रोया करता था बौड़म दास क्या आप बता सकते हैं कि ऐसा क्यों करता था बौड़म दास ? "
- सुशांत सुप्रिय A-5001 , गौड़ ग्रीन सिटी , वैभव खंड , इंदिरापुरम् , ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ.प्र. ) मो : 8512070086 ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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