उसने मेरा हाथ देखा और सिर हिला दिया, "इतनी भाव प्रवीणता दुनिया में कैसे रहोगे! इसपर अधिकार पाओ, वरना लगातार दुख दोगे निरंतर दुख सहोगे!"
यह उधड़े मांस सा दमकता अहसास, मै जानता हूँ, मेरी कमज़ोरी है हल्की सी चोट इसे सिहरा देती है एक टीस है, जो अन्तरतम तक दौड़ती चली जाती है दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा देती है! पर यही अहसास मुझे ज़िन्दा रखे है, यही तो मेरी शहज़ोरी है! वरना मांस जब मर जाता है, जब खाल मोटी होकर ढाल बन जाती है, हल्का सा कचोका तो दूर, आदमी गहरे वार बेशर्मी से हँसकर सह जाता है, जब उसका हर आदर्श दुनिया के साथ चलने की शर्त में ढल जाता है जब सुख सुविधा और संपदा उसके पांव चूमते हैं वह मज़े से खाता-पीता और सोता है तब यही होता है: सिर्फ कि वह मर जाता है!
वह जानता नहीं, लेकिन अपने कंधों पर अपना शव आप ढोता है। - उपेन्द्रनाथ अश्क |