हरि संग खेलति हैं सब फाग। इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।। सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन। बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।। डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग। अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।। एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि। छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।। मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई। भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।। छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि। सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।। दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद। सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।।
- सूरदास |