कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हम को क़ाएदे क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने इस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं
मौलवी से डाँट खा कर अहल-ए-मकतब फिर उसी आयात को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेश-ए-नज़र हम आदमी को भून कर खाने लगे हैं
-दुष्यंत कुमार |