मुस्लिम शासन में हिंदी फारसी के साथ-साथ चलती रही पर कंपनी सरकार ने एक ओर फारसी पर हाथ साफ किया तो दूसरी ओर हिंदी पर। - चंद्रबली पांडेय।

मदारीपुर जंक्शन के उपन्यासकार बालेंदु द्विवेदी से बातचीत

 (विविध) 
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रचनाकार:

 रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

बालेंदु द्विवेदी को उनके पहले उपन्यास ‘मदारीपुर जंक्शन' ने हिंदी उपन्यासकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया है। बालेन्दु द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के ब्रह्मपुर गाँव में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पैतृक गाँव के मारुति नंदन प्राथमिक विद्यालय तथा लल्लन द्विवेदी इंटर कालेज में हुई। आपने इंटरमीडिएट की पढ़ाई (1989-1991) चौरी चौरा के ऐतिहासिक स्थल स्थित 'गंगा प्रसाद स्मारक इंटर कालेज' से की और आगे की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक (1991-1994) और परास्नातक (1994-1996) की।

आज वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उनके जिस प्रथम उपन्यास ‘मदारीपुर जंक्शन'(2017) की हिंदी साहित्य में धूम मची हुई है, उसकी नींव इलाहाबाद में पड़ी और वह परवान चढ़ा बहराइच जनपद में। बालेंदु को यह उपन्यास पूरा करने में लगभग साढ़े तीन साल लगे। आप निरंतर अपने जीवन की नकारात्मक परिस्थितियों से जूझते रहे, संघर्ष करते रहे लेकिन बालेन्दु के लिए यह संघर्ष भी संजीवनी की ही तरह था। देश के विभिन्न शहरों में भी इस उपन्यास का विमोचन हो चुका है और सोशल मीडिया पर अपनी छटा बिखेर रहा है। इस बार हम आपका साक्षात्कार ‘मदारीपुर जंक्शन' के लेखक बालेंदु द्विवेदी से करवा रहे हैं।

‘मदारीपुर जंक्शन' चर्चित उपन्यास है और अब तो इसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है, आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

मदारीपुर जंक्शन मेरा पहला उपन्यास है। मैं बार-बार कहता आया हूँ और आज भी दुहराना चाहूंगा की उपन्यास एक श्रमसाध्य और समयसाध्य काम है। यह एक दीर्घकालीन साधना है। यह आपकी रगों से सारा रक्त निचोड़ लेता है। मैं आपको बताना चाहूंगा कि इसे लिखने में मुझे लगभग चार साल लगे। आज जब मैं देखता हूँ कि कल के लेखक केवल छह महीन में उपन्यास लिख डालते हैं, तो हतप्रभ रह जाता हूँ। वे लिखने और छपने तथा प्रसिद्धि की बहुत जल्दी में हैं। मैं इस 'रेस' में कत्तई नहीं हूँ।

Madaripur Junction Hindi Novel by Balendu Dwivedi

हाँ, ‘मदारीपुर जंक्शन' के बारे में बस इतना ही कहना चाहूँगा कि दिसंबर 2017 में इसका पहला संस्करण आना और पहले चार महीने में इसका तीसरा संस्करण आना एक सुखद एहसास है और यह मेरे जैसे नवजात लेखक के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि भी है। साहित्यकारों-असाहित्यकारों और सबसे बढ़कर छद्म साहित्यकारों की ज़मात में, इस उपन्यास को पाठकों का ढेर सारा सम्मान और ढेर सारा प्यार मिल रहा है। पुरानी पीढ़ी के पाठक हों, चाहें युवा पीढ़ी के -सभी ने इसे हाथों-हाथ लिया है। सोच कर यही लगता है कि हिंदी उपन्यास के माथे पर यह जो 'अब कम पढ़ी जाती है' की बिंदी चस्पा कर दी गई है, वो सरासर गलत है। इस बात का भी संकेत है कि हिंदी का पाठक वर्ग बेहतर रचनाओं की क़द्र करना जानता है -चाहें युग और समय कोई भी क्यों न हो।

"छद्म साहित्यकारों की ज़मात" से आपका तात्पर्य क्या है?

मेरी दृष्टि में छद्म साहित्यकार वे साहित्यकार हैं जो साहित्य को कुछ भी नया देने या रचने में असमर्थ हैं लेकिन उनका दम्भ है कि साहित्य केवल उनके बल पर खड़ा है। इन छद्म साहित्यकारों ने प्रतिभावान लोगों के साहित्य को वैसे ही आच्छादित कर रखा है जैसे बादल कुछ समय तक सूर्य को घेर लेते हैं।


अभी तक के संस्करणों की कितनी प्रतियां प्रकाशित हुई हैं?

प्रकाशन एक संस्करण में कुल 1800 प्रतियां प्रकाशित करता है जिसमें 1500 पेपरबैक और 300 लाइब्रेरी संस्करण होते है। मदारीपुर जंक्शन के प्रथम प्रकाशन से चार माह के भीतर कुल तीन संस्करण बाजार में आ चुके हैं।

अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में कुछ बताइए?

मैं बहुत इत्मीनान से कथानक का चयन करता हूँ, बहुत मज़बूती से अपने पात्रों का गठन करता हूँ और एक लुहार और एक बढ़ई की तरह एक-एक वाक्य को ठोक-पीट कर आगे बढ़ता हूँ। जब तक मैं इन चीज़ों से पूरी तरीके से संतुष्ट नहीं हो जाता, मैं आगे नहीं बढ़ सकता। इस लिहाज़ से मैं आज के नए लेखकों से कोसों पीछे हूँ पर मुझे इसका तनिक भी गुरेज़ नहीं रहता, बल्कि नए लेखकों की इस तेज़ी पर खुशी ज़रूर होती है।

इस उपन्यास की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

देखिये..! प्रेरणास्रोत को एक वाक्य में 'डिफाइन' करना बहुत कठिन काम है। फिर भी मैं इसके कुछ प्रेरणास्रोतों की ओर इशारा ज़रूर करना चाहूंगा। अगर विषय-वस्तु के लिहाज़ से देखें तो इस उपन्यास के पीछे का मूल प्रेरणास्रोत वह समाज है जिसमें मैं पैदा हुआ और पला-बढ़ा। जहाँ मैंने समाज के ऊँचे कहे जाने वाले लोगों को हेकड़ी दिखाते और नीची कही जाने वाली बिरादरी के लोगों को तिल-तिलकर संघर्ष करते और निरंतर मज़बूती से खड़ा होते देखा है। लेखकों के लिहाज़ से मेरे प्रेरणास्रोत मुंशी प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, काशीनाथ सिंह जैसे लोग रहे हैं। जिस एक घटना ने मुझे पहली बार रचनात्मक लेखन के लिए प्रेरित किया, वह थी-इलाहाबाद के प्रवास के दौरान एक आकस्मिक आगज़नी की घटना; जिसने मेरे भीतर के सोये हुए व्यंग्यकार को जगा दिया।

‘मदारीपुर जंक्शन' के नाटकीय मंचन के प्रति दर्शकों की कैसी प्रतिक्रिया है?

मदारीपुर जंक्शन के नाटकीय मंचन के प्रति दर्शकों का वैसा ही उत्साह रहा है, जैसा इसके पाठकों का। एक लगभग उपेक्षित मान ली गई विधा-'नाटक' में इस उपन्यास के प्रस्तुतीकरण के बावजूद, इसके हर मंचन में 'आडिटोरियम फ़ुल' रहा और दो घंटे के बिना ब्रेक वाले इस नाटक में दर्शकों की तालियाँ और सीटियाँ ख़ूब बजीं। इलाहाबाद के एनसीजेडसीसी लगभग 400 सीटों वाले तथा लखनऊ के बाबू बनारसीदास यूनिवर्सिटी के 800 सीटों वाले आडिटोरियम में सभी सीटें फ़ुल रहीं। इसके मारक संवादों ने दर्शकों के बीच एक स्थायी मुकाम बना लिया। यह दर्शकों के इसके प्रति उत्साह को ही दर्शाता है जबकि आम तौर पर नाटकों के लिए दर्शक नहीं मिलते। भविष्य में इसे गोरखपुर, उन्नाव, कानपुर, दिल्ली, मुंबई, वीरगंज और काठमांडू (दोनों नेपाल), मारीशस और यूएसए में मंचित करने की योजना पर कई संस्थाओं के साथ बात-चीत चल रही है।

इस उपन्यास का सबसे विवादास्पद पात्र कौन है? और क्यों?

मेरे लिए यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि इस उपन्यास का कौन सा पात्र विवादास्पद है और कौन नहीं। दरअसल चरित्रों को नायक, खल और विदूषक में तो बांटा जा सकता है, पर विवादास्पद और गैर-विवादास्पद में तो कत्तई नहीं। फिर एक उपन्यासकार के तौर पर मैं सभी चरित्रों का सर्जक रहा हूँ। इसके कई खल पात्र, खल प्रवृत्ति के होने के बावजूद अत्यंत आकर्षक हैं। उदाहरण के लिए छेदी बाबू को आप उपन्यास में देखेंगे तो पायेंगे कि अरे यह तो बहुत नकारात्मक चरित्र है, लेकिन मुझे यह चरित्र बहुत आकर्षक लगता है। कई पात्र जैसे बैरागी बाबू आदि नायक की तरह दिखने के बावजूद नायक नहीं हैं। चइता उपन्यास का नायक होते-होते रह जाता है। भिखारीलाल हीरो बनते-बनते विलेन से दिखने लगते हैं। इसलिए विवादास्पदता के लिहाज़ से मेरी ओर से इस सवाल का जवाब होगा-‘कोई नहीं'!

सोशल मीडिया पर उपन्यास के प्रति कैसी प्रतिक्रिया है?

सोशल मीडिया एक खुला मंच है, जिसपर हर कोई बड़ी बेफ़िक्री से अपनी बात रख सकता है। इसने नए साहित्यकारों को अपनी बात कहने के लिए एक मंच प्रदान किया है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। फिर, इससे साहित्य का भी एक बड़ा पाठक वर्ग जुड़ा है। इसके अतिरिक्त यह त्वरित प्रतिक्रिया का सबसे आसान माध्यम भी है। मेरा सौभाग्य है कि सोशल मीडिया ने ‘मदारीपुर जंक्शन' को एक बड़े मुक़ाम तक पहुँचाने में खासी मदद की है। कई नए लोग इसके माध्यम से मुझसे जुड़े, कई ने इसके माध्यम से उपन्यास की बेहतरीन समीक्षाएं लिखीं। अधिकांश को इसके माध्यम से यह जानने में आसानी हुई कि उपन्यास कहाँ से छपा है और इसे कैसे खरीदा जा सकता है।

हालांकि यह भी सच है कि इसके माध्यम से मुझे हिंदी साहित्य जगत में प्रचलित आपसी लंगीमारी का भी पता चला। एकाध बार मुझे कुछ छद्म साहित्यकारों और आत्मप्रवंचित समीक्षकों से दो-दो हाथ भी करना पड़ा है लेकिन सोशल मीडिया पर जो एक बड़ा पाठक वर्ग है, उसने इसे खासा सम्मान दिया है। यही शायद मदारीपुर जंक्शन की सबसे बड़ी उपलब्धि है और मेरी भी।

उपन्यास कैसे और कहाँ से खरीदा जा सकता है, इसके बारे में भी जानकारी दें?

मदरीपुर जंक्शन देश के सभी प्रमुख प्रतिष्ठानों पर उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त इसे वाणी प्रकाशन के वेबसाइट और अन्य ‘ऑनलाइन साइट्स' से ख़रीदा जा सकता है।

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