झूम-झूम मृदु गरज गरज घन घोर! राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर! झर झर झर निर्झर गिरि-सर में, घर, मरु तरु-मर्मर, सागर में, सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में, मन में, विजन गहन कानन में, आनन-आनन में, रव घोर कठोर- राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष! बरस तू बरस बरस रसधार! पार ले चल तू मुझको बहा, दिखा मुझको भी निज गर्जन-भैरव संसार ! उथल-पुथल कर हृदय- मचा हलचल- चल रे चल, मेरे पागल बादल ! धंसता दलदल, हँसता है नद खल खल बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल। देख-देख नाचता हृदय बहने को महा विकल बेकल, इस मरोर से--इसी शोर से-- सघन घोर गुरु गहन रोर से मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर! राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
-निराला (परिमल)
* इस कविता में निराला ने आकाश में उमड़ते-घुमड़ते गरजते और बरसते बादलों को देखकर अन्तर्मन के भावों तथा हृदय के उल्लास को व्यक्त किया है। यह उनकी प्रगतिवादी रचना है। बादलों की गर्जना क्रान्ति की प्रतीक है। |