चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना। जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले, या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले, आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया, जाग या विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले ! पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना ! जाग तुझको दूर जाना।
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले ? पन्थ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले ? विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन, क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले ? तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना ! जाग तुझको दूर जाना !
वज्र का उर एक छोटे अश्रुकण में धो गलाया, दे किसे जीवन सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया ? सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या? विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया ? अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना ? जाग तुझको दूर जाना!
कह न ठण्डी साँस में, अब भूल वह जलती कहानी, आग हो उर में तभी दुग में सजेगा आज पानी, हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका, राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी! है तुझे अंगार शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना ! जाग तुझको दूर जाना !
-महादेवी वर्मा
(सांध्यगीत) |