पथिक हूँ,— बस, पथ है घर मेरा। बीत गए कितने युग चलते किया न अब तक डेरा। नित्य नया बनकर मिलता है, वही पुराना साथी, निश्चित सीमा के भीतर ही लगा रहा हूँ फेरा। हैं गतिमान सभी जड़-चेतन, थिर है कौन बता दे? क्षण, दिन, मास, वर्ष, ऋतु, यौवन, जीवन, विभा अँधेर दर्शन - पात्र एक ही जन है, क्षण क्षण रूप बदलता, इस नाटक में बस दो पट हैं, संध्या और सवेरा। "इसके बाद और भी कुछ है " यही बताकर आशा, लेने देती नहीं तनिक भी, मन को कहीं बसेर । ममते! देख दिवस ढलता है, घन घनघोर उठे हैं, बतला दूर यहाँ से क्या है अभी नगर वह तेरा? पथिक हूँ— बस, पथ है घर मेरा—
-मोहनलाल महतो 'वियोगी' |