अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं;
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं;
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है;
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं;
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से;
किसको मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं;
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब;
सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम हैं;।
- अंकित "आकि"
ई-मेल: [email protected] */ // --> // --> // -->
#
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे;
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे;
अपने ही साये से हर कदम लरज़ जाता हूँ;
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे;
कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे;
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे;
मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं;
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे;
आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं 'आकि';
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।
- अंकित "आकि"
ई-मेल: [email protected]