फ़ोन पर ज़ाहिर
फ़ोन पर ज़ाहिर फ़साने हो गए
ख़त पढ़े कितने ज़माने हो गए
इश्क सोचे समझे बिन कर तो लिया
नाज़ अब मुश्किल उठाने हो गए
बेटियाँ कोठों की ज़ीनत बन गईं
किस क़दर ऊँचे घराने हो गए
बाँट कर नफ़रत मिली नफ़रत मगर
प्यार से हासिल खज़ाने हो गए
जानते कमज़ोरियाँ माँ बाप की
आज के बच्चे सयाने हो गए
- बलजीत सिंह 'बेनाम'
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फ़ैसला कैसे करूँ मैं
फ़ैसला कैसे करूँ मैं आपकी तक़दीर का
ख़ुद ही मैं क़ैदी हुआ हूँ वक़्त की जंज़ीर का
ज़िन्दगी तक़सीम जिससे हो गई दो भाग में
एक हिस्सा पास तेरे है उसी तस्वीर का
फिर नए रस्ते की ज़ानिब चल पड़ेंगे हम मगर
लफ्ज़ कोई खोज लाये मिट चुकी तहरीर का
कितनी अच्छी चीज़ हो घर पर पड़ी रह जायेगी
क़ायदा आया नहीं गर माल की तशहीर का
तुम ख़ुशी से जी रहे हो इसमें है मेरी ख़ुशी
क्या करोगे ये बताओ दर्द की जागीर का
--बलजीत सिंह 'बेनाम'
*मुशायरों व सभा संगोष्ठियों में काव्य पाठ। आकाशवाणी हिसार और रोहतक से काव्य पाठ।