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शहीर जलाली की दो ग़ज़लें (काव्य) |
Author: शहीर जलाली
तन बेचते हैं, कभी मन बेचते हैं
दुल्हन बेचते हैं कभी बहन बेचते हैं
बदल कर सैंकड़ों लिबास सौदागर
बाजारों में सिर्फ कफन बेचते हैं
गुलों को मसलना पुरानी रस्म हुई
माली अब पूरा चमन बेचते हैं
इमां -औ-ज़मीर को बेचने के बाद
कुछ लोग अपना वतन बेचते हैं
मुफ्त में घोलते हैं ज़हर हवाओं में
और महंगी दरों पर अमन बेचते हैं
खुदा को खरीदते हैं कुछ लोग ‘जलाली'
कुछ लोग राम और किशन बेचते हैं
- शहीर जलाली
37 अन्द्रुस पल्ली, फोर्टी फाइव कैंपस
शांतिनिकेतन - 731235
पश्चिम बंगाल
2)
कोई परवाना नहीं जो जल जाऊंगा
मैं तो मोम हूं, पिघल जाऊंगा
शाम से पहले पहचान लो मुझे
वक्त का सूरज हूं ढल जाऊंगा
तुम अपने इरादों के पंख संभालो
मैं तो एक झोका हूं निकल जाऊंगा
कश्ती का किनारा तो ढूंढना तुम्हें है
मौज हूं मैं, तूफानों में संभल जाऊंगा
मंजिल से पहले ना कहना जलाली
अब रात हो गई है, कल जाऊंगा
- शहीर जलाली
37 अन्द्रुस पल्ली, फोर्टी फाइव कैंपस
शांतिनिकेतन - 731235
पश्चिम बंगाल