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अन्तस् पीड़ा का गहन जाल (काव्य) |
Author: सागर
अधरों पर हास-------
सुख का परिहास।
हृदय मुखर, स्वर-आकुलित
प्रत्यक्ष शब्दविहीन कंठ
किस वेदना से है चूर-चूर
मेरी देह, मन, मेरी आत्मा
मुझे ज्ञात है, अनभिज्ञ है
ये जगत मेरा, मेरा निज, सखा।
कैसे कहूं, किस मुख कहूं
संताप का जो वितान है
पीड़ाकुलित मन प्राण है
मेरे प्रिय का प्रदान है
जिनने दिया यह क्लेश-धन
करता रहा संतप्त मन
उनके लिए मैं कौन हूँ
बस मैं हूँ अपने साथ
कुछ कहता नहीं, और मौन हूँ ।
-सागर
sagar.ps768@gmail.com