भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 

ग़ज़ल (काव्य)

Author: शुभांगिनी कुमारी चन्द्रिका

रहा देखता जमाना


किससे करूँ शिकायत? और किससे दोस्ताना?
कोई साथ चल ना पाया, रहा देखता ज़माना।

रही आँख छलकीं -छलकीं, आहें थीं सूफ़ियाना,
वो जिगर में आग भरके, होंठों से मुस्कुराना ।

वाह खुदा! तेरी खुदाई, मुझको ये दिन दिखाया...
पहचान अब हुई है, अपना है क्या बेगाना ।

कहीं रूठ के है बैठी, मेरी किस्मतों की कश्ती...
मेरे पास है तेरा दम, सब लुट गया खजाना ।

मेरी जिन्दगी की कीमत, कोई मुझसे आज पूछे,
रही एक बंद मुट्ठी, और रेत सा ठिकाना ।

बहला ले या बुला ले, बदनाम "चन्द्रिका" को
जो जहाँ में जब भी चाहा, वही छिन गया खिलौना ।

- शुभांगिनी कुमारी चन्द्रिका

 

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