Important Links
दो ग़ज़लें (काव्य) |
Author: अजय अज्ञात
पिता के दक्ष हाथों ने मुझे साँचे में ढाला है
मुझे कुलदीप बन घर में सदा करना उजाला है
मेरे नखरे उठाये हैं बड़े नाज़ों से पाला है
बिठाया मुझको कन्धों पर हवाओं में उछाला है
थमा कर अपनी ऊँगली को सिखाया जिसने था चलना
बनूँगा उसकी मैं लाठी मुझे जिसने संभाला है
कि जिसने खूं पसीने से सभी बच्चों को पाला था
उसी की ख्वाइशों पर अब पड़ा मकड़ी का जाला है
सभी के वास्ते त्यौहार पर आये नए कपडे
पिता के शानो पर लेकिन पुराना सा दुशाला है
- अजय अज्ञात
ई-मेल: [email protected]
(२)
हाथो में कुल्हाड़ी को देखा तो बहुत रोया
इक पेड़ जो घबराकर रोया तो बहुत रोया
जब पेड़ नहीं होंगे तो नीड कहाँ होंगे
इक डाल के पंछी ने सोचा तो बहुत रोया
दम घुटता है साँसों का जियें तो जियें कैसे
इंसान ने सेहत को खोया तो बहुत रोया
जाने ये मिलाते हैं क्या ज़हर सा मिटटी में
इक खिलता बगीचा जब उजड़ा तो बहुत रोया
हँसता हुआ आया था जो दरिया पहाड़ों से
'अज्ञात' वो नगरों से गुजरा तो बहुत रोया
- अजय अज्ञात
ई-मेल: [email protected]
*/
// -->