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फ़िजूलखर्ची (कथा-कहानी) |
Author: रेखा
"सुनिए जी, आज वह गौशाला वाला आया था, शर्मा जी के घर। मैं भी उनके यहाँ थी तो मैंने भी 501 रुपये की पर्ची कटवा दी, ससुर जी के नाम। दो दिन बाद उनकी बरसी है ना!" शारदा ने चहकते हुए कहा!
"तुम्हारा तो दिमाग ख़राब हो गया है। मैं यहाँ दफ़्तर में दिन-रात खटता रहता हूँ और तुम्हें दान की पड़ी है! आइन्दा मुझे इस तरह की फ़िजूलखर्ची नहीं चाहिए!" विश्वास लगभग बरस ही पड़ा था शारदा पर।
चार दिन बाद ब्रजेश की शादी में गए तो 'विश्वास' ने नाचते-नाचते अचानक नोटों की गड्डी जेब से निकाली और घोड़ी के आगे झूमते शराबी बारातिओं पर वार कर हवा में उछाल दी!
दूर से यह सब देखती हुई शारदा फ़िज़ूलख़र्ची की परिभाषा नहीं समझ पा रही थी !
- रेखा