जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

सुबह-सवेरे (काव्य)

Author: राजबीर देसवाल

किरणों की अंगड़ाई जैसे
पौ यूं फट फट आई जैसे
रात की चीं-चीं चुप्पी साधी
भोर भी यूं बौराई जैसे
पाखी शोर मचाने वाले
उनकी तो बन आई जैसे
हवा बहे हौले-हौले से
अभी नई हो आई जैसे
रात का यौवन भाया उसको
कली फूल बन आई जैसे
ओस की बूँदें मोती बनकर
तडके दूध-नहाई जैसे
रात के भारी कठिन पलों की
भोर में हुई रिहाई जैसे
जैसी मैंने आँखों देखीं
वैसी तुम्हे बताई जैसे

-राजबीर देसवाल

ई-मेल: rajbirdeswal@hotmail.com

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश