भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 

दो पल | गीत (काव्य)

Author: शिवशंकर वशिष्ठ

दो पल को ही गा लेने दो ।
गाकर मन बहला लेने दो !

कल तक तो मिट जाना ही है;
तन मन सब लुट जाना ही है;

लेकिन लुटने से पहले तो
अपना रंग जमा लेने दो ।

दो पल को ही गा लेने दो।
गाकर मन बहला लेने दो!

फूल खिलखिला कर हँसते हैं,
फिर तो काँटे ही धँसते हैं;

काँटों से पहले फूलों को--
कुछ शृंगार सजा लेने दो ।

दो पल को ही गा लेने दो ।
गाकर मन बहला लेने दो!

जीवन क्या है? इक सपना है,
सपने में सब कुछ अपना है;

अपनेपन की इन घड़ियों में
लघु संसार बसा लेने दो ।

दो पल को ही गा लेने दो ।
गाकर मन बहला लेने दो !

- शिवशंकर वशिष्ठ

[साभार - गीली आँखें गीले गीत]

 

 

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