भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 

अनपढ़-गवार | लघु-कथा (कथा-कहानी)

Author: रोहित कुमार 'हैप्पी'

बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की थी। निसंदेह माँ की कैसोटी पर बहू के रूप में लड़के की पसंद पूरी तरह खरी नहीं उतरती थी लेकिन बेटा खुश रहे तो माँ उसकी खुशी में खुश थी।

घर में माँ-बेटा दो ही तो जीव थे। बेटा भी ऐसा कि कलियुग में लोगों को श्रवण की कथा याद आ जाए पर यह आज उसको क्या हुआ?

'तुम मुझे बसने भी दोगी कि नहीं? तुम उम्र-भर अनपढ़-गवार ही रही!' बेटा माँ पर चिल्ला रहा था, 'मधु को जो करना है, करने दिया करो। वह पढ़ी-लिखी है और उसे हर बात पर तुम्हारी दखलअंदाजी पसंद नहीं।' बेटा पैर पटकते हुए बाहर हो लिया था।

अपने श्रवण-कुमार के मुँह से निकले इन अग्नि-बाणों को माँ झेल नहीं पा रही थी। 'तू कितनी भोली है, तू कितनी प्यारी है..' चहकते रहने वाले बेटे का यह रौद्र रुप और उसके मुँह से 'अनपढ़-गवार' जैसे शब्द माँ के मानो प्राण-पखेरू ही उड़ा डालना चाहते थे।

एक ही तो बेटा है! माँ जाए तो कहाँ जाए? लेकिन अब वो दूर, कहीं बहुत दूर चली जाना चाहती थी।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'

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