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रोना और मरामा (कथा-कहानी) |
Author: रोहित कुमार हैप्पी
बहुत समय पहले की बात है। ‘आओटियारोआ’ में एक महिला थी जिसका नाम था ‘रोना’। रोना अपने पति के साथ रहती थी। उनका परंपरागत विवाह हुआ था। यह शादी उनके दादा दादी और कबीले के मुखियाओं ने तय की थी। ताउमू विवाह काफी आम थे और अकसर अपनी नस्ल को सुरक्षित या अपने कबीले की बेहतरी के लिए किए जाते थे। अधिकतर ऐसे विवाह सफल और सुखमय रहते थे लेकिन रोना और उसका पति इसका अपवाद ही थे। उनके बीच शायद कुछ भी एक सा नहीं था। वैसे भी उनके बीच तो शादी के पहले दिन से ही समस्याएँ पैदा हो गईं थीं। शादी वाले दिन ही बाढ़ आ गई और जिस ‘मराए’ (माओरी पवित्र-स्थल) में उनकी शादी हुई, उसमें भी पानी आ गया। रोना के सभी रिश्तेदारों को ‘मराए’ के बाहर छप्पर में सोना पड़ा। ‘रोना’ को लगा, उसके परिवार और संबंधियों का अपमान हुआ है। बस इसी बात को लेकर ‘रोना’ और उसके पति के बीच पहला तर्क-वितर्क शुरू हुआ। दुर्भाग्य से, इस दंपति के लिए, यह नारकीय वैवाहिक जीवन की शुरुआत थी।
रोना का अपने पति से अकसर झगड़ा होता रहता था। एक रात घर में पानी खत्म हो गया और ‘पानी भरने’ को लेकर दोनों के बीच खूब तूफान मचा। रोना के पति ने पूरा घर सिर पर उठा लिया।
“आप तो कुछ करता नहीं! बस बैठे-बिठाए, इसे सब कुछ चाहिए।“ रोना कुढ़ती-कलपती पानी लेने चल दी। रास्ते में वह अपने पति को कोसती जा रही थी। ऊपर आसमान में चाँद उसे देख रहा था और उसकी सब बातें सुन रहा था।
आसमान में बादल भी छाए हुए थे। बादल जब मरामा यानी चाँद के सामने से गुजरे तो एक पल को अंधेरा छा गया। “हे ईश्वर!” रोना को घुप्प अंधेरे में ठोकर लगी और वह गिरते-गिरते बची। रोना तो पहले ही घर से लड़कर आई थी। बस अब उसका गुस्सा ‘चाँद’ पर फूट पड़ा। चाँद की रोशनी लुप्त न होती तो रोना भला क्यों ठोकर खाती? “यह चाँद भी निकम्मा है। पता नहीं इसकी रोशनी को भी अभी ग्रहण लगना था!”
मरामा यानी चाँद ने रोना से कहा, "सावधान, अपनी जुबान पर लगाम दो। कहीं यह भला-बुरा कहना तुम्हें भारी न पड़ जाए।“
रोना तो पहले से ही गुस्से में थी। मरामा की बातों ने आग में जैसे घी डाल दिया। मरामा न रुकी। चाँद को कोसती ही रही।
मरामा इससे अधिक अपमान न सह पाया। बस, झट से चंद्र लोक से धरती पर आ पहुंचा। रोना अब भी न रुकी तो मरामा उसे उठाकर बलपूर्वक अपने साथ चंद्र लोक ले गया।
उधर, रोना का पति अपनी पत्नी को खोजता घूमता रहा लेकिन वह उसे कैसे खोज पाता? ‘रोना’ धरती पर हो तो मिले! वह तो चन्द्र लोक पहुँच चुकी थी।
अब वह ‘रोना’ को याद कर-करके विलाप करता रहा। उसे ‘रोना’ के साथ किए अपने दुर्व्यवहार का पछतावा था। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।‘
उधर, ‘रोना’ को धरती से गुस्से में अपने साथ ले आने के बाद भी ‘मरामा’ ने अपने लोक में ‘रोना’ का खूब स्वागत किया। उसके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। रोना प्रसन्न थी। यूं ही समय बीतने लगा अब तो ‘रोना’ को आए काफी समय हो गया था। वे दोनों आपस में काफी घुल-मिल गए थे।
एक दिन ‘मरामा’ ने ‘रोना’ से पूछा, “क्या तुम धरती पर लौटना चाहोगी?” यह प्रश्न सुनकर ‘रोना’ को एहसास हुआ कि वह मरामा से प्यार करने लगी है। वह उसे बताती है कि वह उसके साथ खुश है और अब यहीं रहना चाहती है।
‘रोना’ के स्नेह भरे बोलों ने ‘मरामा’ के दिल को छू लिया। उसने प्रसन्न होकर ‘रोना’ को एक सुंदर परिधान भेंट किया और रोना को ‘ज्वार का नियंत्रण’ भी दे दिया। तभी से रोना ‘ज्वारभाटा’ की नियंत्रक है। चमकीले चाँद पर जो एक छाया दिखाई देती है, वह कुछ और नहीं ‘रोना’ का वहीं सुंदर परिधान है, जो मरामा ने उसे भेंट किया था।
-रोहित कुमार हैप्पी
[ न्यूज़ीलैंड की माओरी लोक-कथा, प्रशांत की लोक-कथाएँ, केंद्रीय हिन्दी स्न्स्ताहन, आगरा, भारत ]
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