जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की अवधारणा एक विशुद्ध भारतीय प्रत्यय (विविध)

Author: विजय रंजन

‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ हमारे यहाँ अप्रतिम सांस्कृतिक सांस्कारिक महत्त्व का अति विशिष्ट प्रत्यय है। वास्तव में सिद्धान्ततः और व्यवहार्यतः समवेत में औ...र स्फुट एकल रूप में भी यह एकल सामासिक शब्द-बन्ध भारतीय दर्शन जगत्: अध्यात्म जगत् , नैयायिक जगत्, साहित्य जगत्, कला जगत् आदि प्रायः सभी मानसिक-वैचारिक ज्ञानानुशासनों में व्याप्त है। सर्वस्वीकृत आदर्श जीवन-मूल्यों के रूप में हमारे बौद्धिक जगत् के विभिन्न अनुशासनों में भी सुस्थापित है यह। सम्प्रति ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ भारतीय दूरदर्शन का प्रतीक वाक्य है; परन्तु इस शब्द-बन्ध का महत्त्व इतने तक सीमित नहीं, अपितु अगाध है। 

कहा जाता है कि यह पाश्चात्य अवधारणा है, इसलिए कि वहाँ यूनानी विचारक अरस्तू ने ‘The True The Good The Beauty’ का सबसे पहले प्रयोग किया था। इसी तरह, पाश्चात्य विचारक आइवर आर्मस्ट्रांग रिचर्ड्स के ‘The truth , the good, the beauty’ के रूप में प्रयुक्त करने के ब्याज से या कीट्स (Keats) की कविता ‘Beauty is truth; truth is beauty: that is all Ye know on earth, and all ye need to know’ प्रथम बार उपभुक्त होने के ब्याज से भी इस प्रत्यय को पाश्चात्य प्रत्यय मानना तर्कोचित नहीं। 

संदर्भगत वस्तुस्थिति का सच है कि ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ एक विशुद्ध भारतीय प्रत्यय है, इसलिए कि ‘सत्यम् का आधार सत्’, ‘शिवम् का आधार चिदत्व’ और ‘सुन्दरम् का फलित आनन्द’ है औ...र इन सभी का समवेत ‘सच्चिदानन्दस्वरूपीय ईश्वर’ अर्थात् परमेश्वर माना जाता है। इस प्रकार ‘सत् + चित् + आनन्द’ का समवेत हमारे यहाँ ईश्वर या कि परमेश्वर का स्वरूप है। ईश्वर या कि परमेश्वर का यह स्वरूप आविश्व भारतेतर जगत् में लभ्य नहीं है। भारतेतर जगत् में परमेश्वर ‘द गॉड द ज्यूस’ है; वह ‘आलमाइटी’ और ‘रबुल आलमीन’ माना जाता है वहाँ। हीगेल प्रभृति विद्वान् उसे ‘वेल्टजीस्ट’ भी मानते हैं, लेकिन वह ‘सच्चिदानन्द’ नहीं है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 17/15 में भी कहा गया है- ”अनुद्वेगकरम् वाक्यं, सत्यं प्रियं हितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं  चैव, च वाङ्मयं तप उच्यते।“वहाँ भी ‘सत्यम् प्रियम् हितं च’ का एक साथ शब्दांकन है, जो सत्य, सुन्दर और शिवत्व का आधारभूत रूपायन सम्प्रस्तुत करता है। वास्तव में ‘सर्वहितकारिता’ का पर्याय ही है शिवत्व। आनन्ददायक प्रियम् का आधान भी ‘सुन्दरम्’(या कि सार्वसुन्दरम् सुन्दरता/सौन्दर्य ) का आधान ही है। ‘किरातार्जुनीयम्’ में ‘हितं मनोहरि’ कहा गया है अर्थात् ‘हित’ को ‘मनहर’ होना चाहिए। इस सीमा तक भारतीय मनीषा में सुन्दरम् और शिवत्व (‘हितम्’) सम्पृक्त है एक-दूसरे से।

जयशंकर प्रसाद कहते हैं--

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं
जिसमें अनन्त अभिलाषा के 
सपने सब जगते रहते हैं। 

सच्चिदानन्द-प्रसंग एवं श्रीमद्भगवद्गीता की उक्ति के अतिरिक्त शाक्त ग्रंथों के अनुसार सृष्टि की सर्जना ब्रह्म की शक्ति श्रीमहालक्ष्मी और श्रीमहासरस्वती ने की है। श्रीमहालक्ष्मी सत्य और सुन्दरम् की साक्षात् अधिष्ठात्री हैं, शिवत्व से परे नहीं हैं वे। वहीं, श्रीमहासरस्वती सत्य के साथ शिव (सर्वकल्याणकता) तथा सुन्दरम् प्रत्युत सार्वसुन्दरम् की अधिष्ठात्री हैं, प्रदात्री भी। ये दोनों देवियाँ वास्तव में स्वयम् भी सत्यस्वरूपा, शिवस्वरूपा और सुन्दरम्स्वरूपा हैं। वहीं, वे समवेत में सत्यम्, शिवम् , सार्वसुन्दरम् को विनिर्मित एवं रूपायित करती हैं। प्रकटतः हमारी शाक्त-मनीषा सृष्टि की रचना को मूलतया सत्य + शिव + सार्वसुन्दर से जोड़ती है। बताया जाता है कि प्रारम्भतया सृजित सृष्टि निर्वाक् , ज्ञान-शून्य और सुन्दरम्-शून्य थी, जो विश्व-कल्याणार्थ देवी सरस्वती या कि देवी श्रीमहासरस्वती के प्राकट्य के बाद उनकी लोक-कल्याणक शिवत्व से सचेतन, वाक्शील, संज्ञानशील और सुन्दरम्शील हुई। 

सनातन आस्थाओं के अनुसार भी परम सत्य, परम शक्तिमान, परम सक्रिय ब्रह्म ने लोक-कल्याणार्थ सार्वसुन्दरम् को साकार करने की सदिच्छा से ‘एकोऽहम् बहुस्याम्’ की कामना अभीप्सित की थी। तदनुसार सर्वनियन्ता ब्रह्म ने प्रकृति से सम्मिश्र होकर सर्जनाशील ईश्वरस्वरूप में अपनी शक्तियों को ब्रह्मा, विष्णु , महेश नामक तीन अपररूप में विभाजित करके क्रमशः सृजन, पोषण एवं संहार (वस्तुतः अशिव का संहार) को क्रियान्वित किया। इस त्रिमूर्ति में भी सत्य, शिव और सुन्दरम् (सार्वसुन्दरम्) की कल्पना साकारित है। त्रिमूर्ति में ब्रह्मा सत्य, विष्णु लोक-कल्याण और शिव अशिव के संहारक या कि सार्वसुन्दरम् के संस्थापक स्वरूप में विद्यमान हैं। 

द्रष्टव्य है कि ऋक्-वर्णित देवी सरस्वती की वीणा विपंची भी आधिदैविक, आधिभौतिक के साथ-साथ संगीत के सात सुरों की समवेत संवाहक है, जिनसे मनोहारी कल्याणकारी सुर झंकृत होते है। देवी सरस्वती सत् + शिव + सुन्दरम् को एकल एवं समवेत में साकार करती हैं। देवी सरस्वती स्वयं सत्त्वस्वरूपा, हंसवाहिनी और वीणा, पुस्तक धारिणी हैं। उनकी वीणा विपंची जहाँ स्वतः सौन्दर्य की प्रतीक हैं, वहीं पुस्तक ज्ञान (सत्य) का बहुविध प्रकटीकरण करती है। सत्त्व के दोनों स्वरूप (सत् अर्थात् सत्य और सार तत्त्व) की साक्षात् देवी हैं देवी सरस्वती जो लोक-कल्याण में सर्वदा निरत हैं। इन्हीं से सहयुजित हैं हम भारती+य। 

वस्तुतः उपर्युक्त सदृश सभी मिथक भारतीय मनीषा में सत् + शिव + सुन्दरम् के समवेत प्रयोग को आदि काल से ही प्रादुर्भूत और सम्प्रयुक्त सिद्ध करते हैं। सत् + शिवम् + सुन्दरम् की देवी सरस्वती/महासरस्वती/भारती की पूजा ऋक् युग से ही प्रावधानित है और प्रचलित है यहाँ, जबकि सुकरात या कि किसी भी पाश्चात्य मनीषी के प्रादुर्भाव के बहुत-बहुत पूर्व की प्रत्युत युगों पूर्व की रचना है ऋक् वेद। 

‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ को किंचित् विस्तार से देखें--

सत्य 

हमारा सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र, जैसा कि हम पहले ही कह आए हैं, ‘सत्य’ या कि ‘परम सत्य की तलाश’से निबन्धित है। उपनिषद् तो ‘सत्य’ के विवेचना-ग्रंथ ही हैं।  ‘सत्यम् ब्रह्मेति’ कहा गया है वहाँ। ईशावास्योपनिषद् में ‘सत्य’या कि चरम सत्य की तलाश और चरम सत्य पर पड़े आवरण को अपावृणु करने का निर्देश है। तैत्तिरीयोपनिषद् में तृतीय वल्ली में ‘सत्यम् वद् , धर्मम् चर’ का निदेशन है। वहाँ सत्य को ‘धर्म’ या कि ‘धारणेय कर्म’ के समान संस्तरीकृत किया गया है। औपनिषदिक युग में दीक्षान्त के अवसर पर शिक्षार्थी को ‘‘सत्यम् वद, धर्मम् चर’ की दीक्षा दी जाती थी। अब भी किन्हीं-किन्हीं विश्वविद्यालयों में दीक्षान्त समारोह के अवसर पर आचार्य प्रवर यही दीक्षा उपाधिकारी शिक्षार्थी को प्रदान करते हैं। हमारी तो वैदिक प्रार्थना ही है ‘असतो मा सद् गमय’। अध्यात्म जगत् में ‘सत्यलोक’ की महती प्रतिष्ठा है।  ‘दशकम् धर्म-लक्षणम्’ में प्रमुख लक्षण के रूप में स्थानित है ‘सत्य’-- ”सत्यम् अक्रोधो....दशकम् धर्मलक्षणम्।“ लोकनीति में ‘सत्यम् बू्रयात प्रियम् ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियम्’ निदेशित है। ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ पर हमारी आस्था है। वर्तमान में स्वतंत्र भारत के राज-चिन्ह पर और सर्वोच्च न्यायालय के शीर्ष पीठ पर अंकित है औपनिषदिक निदेशन ‘सत्यमेव जयते, नानृतम्’। भारतीय संसद में भी ‘असत्य’ भाषण को संसद की अवमानना माने जाने का प्रावधान है। ‘सत्य’ निष्ठा को प्रमाणित करने के लिए भारतीय न्यायालयों में ‘सत्य’ की ही शपथ दिलाई जाती है। लोकजीवन में भी सत्य-महात्म्य के प्रति अगाध आस्था है भारतीय भारती+य जन की।  ‘सत्य’ इस सीमा तक पैठा है, हमारे आर्ष ग्रंथों में, हमारे संस्कारों में और कम या अधिक समस्त भारतीयों के मनोमस्तिष्क में, भारतीय लोकमन में कि जनसामान्य में और सभ्य समाज में ‘असत्य’ कदर्थनीय माना जाता है यहाँ।  

कला, साहित्य में तो मूल अधिलक्ष्य के रूप में ‘सत्य’ की तलाश से लेकर सत्य की प्रतिष्ठा तक प्रमुख परास होता है यहाँ के बौद्धिक कलाकारों का और साहित्यकारों का । वहाँ सत्य के साथ शिवत्व और सार्वसुन्दरम् भी प्रायः सर्वत्र प्रतिष्ठित है।

सत्य का आधारभूत प्रत्यय है ‘सत्’। सत् अर्थात् सारतत्त्व या अन्तिमतः अवधारित सत्य स्वरूप इस चरम सत्य का सम्बन्ध सत्त्व से संयुत् भी करती है भारतीय मनीषा। भारतीय मनीषा सत्य उसे ही मानती है, जो शाश्वत स्वरूप में ‘सत्य’ सिद्ध हो सके। प्लेटो भी कहते हैं - ” ज्तनजी पे दमअमत तमनिजमकण्“ कविश्रेष्ठ मैथिलीशरण गुप्त भी ‘साकेत’ में लिखते हैं-- ”सत्य सदा शिव होने पर भी विरुपाक्ष भी होता है। कल्पना का मन केवल सुन्दरार्थ ही होता है।“ 

त्रेता युग में महर्षि वाल्मीकि लोक-कल्याणार्थ अपने महाकाव्य के नायक के चयन हेतु ‘सत्यवान’ होने की अपेक्षा करते हैं और तत्कालीन साम्प्रतम् लोके रामराज्य के पीठासीन राजा राम को सत्यवान पाने के पश्चात् उन्हें 16 सद्गुणी निकषों से आभरित पाकर महनीय रामाख्यान, महान् काव्य-ग्रंथ रामायणम् की रचना करते हैं। इस ग्रंथ में दाशरथ राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ सुस्थापित किया गया है, वह भी इसलिए कि अन्यान्य सद्गुणों के साथ-साथ रामायणम्-नायक दाशरथ राम परम सत्यवान् थे- ‘रामो द्वि ना भाषते’। राम असत्य नहीं बोलते थे, राम दो शब्द या दोगला शब्द भी नहीं बोलते थे। राम ही नहीं, अपितु सभी रघुवंशी ‘सत्य’ ही बोलते थे, सत्य ही ओढते-बिछाते थे। रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएँ, पर वचन ना जाई। स्वयं राजा दशरथ ने अपने प्राण गवाँ कर भी अपने वचन की ‘सत्यता’ पर आँच नहीं आने दी। प्रजाहितरतता, सर्वकल्याणकता का तो आदर्श तंत्र रहा था इक्ष्वाकुवंशियों का राजतंत्र जिसका आधार भी सत्य ही था। रामराज्य इन दृष्टियों से सिरमौर था। ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज्य काहुहि नहिं ब्यापा’। ऐसा रामराज्य वास्तव में सत्यम् , शिवम् और सार्वसुन्दरम् का प्रतिमानक ही था जिसमें प्रमुखतम था ‘सत्य’। 

महाभारत युग में भी श्रीकृष्ण चरम सत्यभाषी थे। अर्जुन, युधिष्ठिर, भीम, कर्ण, भीष्म आदि तक ---- सभी ‘असत्य भाषण’ नहीं करते थे। महाभारत युग में ‘सत्य’ के विभिन्न प्रकार ‘वस्तुनिष्ठ सत्य’, ‘आभासी सत्य’ आदि रूपकृत हो गए थे, फिर भी ‘सत्य’ की महत्ता तो मूलतया विद्यमान थी। महाभारत में ही वस्तुनिष्ठ सत्य वही माना गया जो ‘लोकहितम् अत्यन्तम्’ को रूपांकित करे। बाद के हमारे मनीषी तीर्थंकर महावीर जैन हों या त्रिकायशील गौतम बुद्ध या महात्मा गाँधी आदि सभी ‘सत्य’ को श्रेष्ठ जीवन-मूल्य श्रेष्ठ सदाचार का आधार मानते रहे हैं। सत्य की इतनी प्रतिष्ठा थी त्रेता से ही हमारे देश-समाज में। 

शिवम् 

शिवम् या कि शिवत्व या कि लोक-कल्याण के साक्षात् प्रतीक ‘शिव’ की प्रतिष्ठा भी भारतीय मनीषा में अपरम्पार है। ऋग्वेद में वे ‘रौद्र’ रूप में पूज्य हैं, परन्तु देवी भारती के शान्तिशील सात्त्विक गुणों से सहयुजन के सम्प्रभाव से भारतीय लोकमन में परम कल्याणकारी शिव की अर्चना यजुर्युग में ही प्रतिष्ठित हो गई यहाँ, जो अद्यतन बहुप्रचलित है। त्रिदेवों में भी परम पूज्य हैं शिव। वैष्णवावतारी परशुराम हों या राम या स्वयम् विष्णु-- सभी शिव के आराधक हैं। देव, दनुज, मनुज सभी शिव-पूजक थे। आज भी आभारत शिवमन्दिर या शिवाला या शिवालय, प्रकारान्तर से शिव-पूजा सर्वत्र व्याप्त, सर्वाधिक व्याप्त है। भारत-सीमान्त के ग्राम मानसर के निकट कैलाश मानसरोवर से लेकर कुमारी अन्तरीप के रामेश्वरम् तक ‘शिव’ सर्वथा पूज्य रूप में प्रतिष्ठित हैं। वैष्णव मन्दिरों में भी शिव की मूर्ति, शिव-परिवार, शिवलिंग स्थापित रहती है। अनेक बार तो मूर्ति न मिली, तो किसी पीपल या बरगद के पेड़ के नीचे तने का आश्रय लेकर या यूँ ही कहीं मिट्टी के चबूतरे पर पत्थर के टुकड़े सजा कर उसे ही शिव स्वरूप में पूजित किया जाता है यहाँ प्रायः सर्वत्र। यह लोक की शिव पर आस्था का प्रमाणक है। शैव ग्रंथों में तो सदाशिव, महाशिव की भी उपासना है। शिवत्व से, शिवकारिता से मानव-चेतना चेतना के उत्कर्ष को, चिन्मयता को प्राप्त होती हैं- ‘चिति चेति चितिः’। यही चेतना शिवकारिता को कारित भी करती है और शिवकारिता से प्रकर्षित भी होती है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार समुद्र-मंथन से निकले महाविष से जब तीनों लोकों के सभी जीव जन्तु संत्रस्त हो रहे थे, तभी शिव शंकर ने आगे बढ़ कर उस गरल का पान कर लिया। समुद्रमंथन में निकले भयावह गरल को लोक-कल्याणार्थ पीकर लोक-कल्याणार्थ अपने जीवन को दाँव पर लगाने के कारण ही वे नीलकण्ठी शिव कहलाए थे। तभी से लोक-कल्याण की संदर्भगत प्रबलतम भावना और तद्गत उत्सर्गपरक शिवकारी अभिकर्म को ‘शिवत्व’ के रूप में जाना जाता है। लोक-कल्याण के लिए ही स्वर्ग से धरती पर उतरती गंगा के तीव्र बहाव को भी अपनी जटाओं में बाँध लिया था शिव ने। यजुर्वेद में इन्हीं शिव के विभिन्न स्वरूपों से 8 प्रकार से मन को संकल्पित किया था आर्यजन ने। निस्संदेह यह शिवत्व सर्वथा पूज्य है, और लोकहित में, सार्वहित में स्वहित में यह परम उपादेय भी है। इसीलिए लोकहित/सार्वहित के प्रमुखतम उपस्कर साहित्य में शिवत्व या कि शिवम् या कि शिव का महत्त्व अपरिमित माना जाता है यहाँ। प्रकारान्तर से शिवत्व की आक्षरिक आराधना ही तो करते आए हैं हमारे साहित्यकार।

सुन्दरम्

सुन्दरम् या सौन्दर्य। संदर्भगत प्रत्यय सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का सर्वाधिक चर्चित और बहुधा विविध रूपों में व्याख्यायित शब्द है सुन्दरम्। तदेव सत्यम्, शिवम् के उपरि-अंकित विवेचन को अनुशीलित करने के उपरान्त सुन्दरम् को गहनता से अनुशीलित करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि वास्तव में ‘सुन्दरम्’ का महत्त्व, सुन्दरम् के बोध का महत्त्व भी भारतीय मनीषा में गहरे तक व्याप्त है। ‘सुन्दरम्’ को भारतीय मनीषा सार्वसुन्दरम् और लोकसुन्दरम् के विन्यास में ग्रहण करती है। ‘सुन्दरम्’ का वास्तविक परास भी सार्वसुन्दरम् या कि लोकसुन्दरम् ही होता है। वह जो सबके लिए सुन्दर हो, उसी सुन्दरम् को, उसी सुन्दरता को, उसी सौन्दर्य को श्रेयस् मानती है भारतीय मनीषा और यहाँ का लोकमन भी। हमारे सम्पूर्ण साहित्य जगत् में शब्द, अर्थ और उनके संयोजन में, शैली में ‘सुन्दरम्’ विशेष वांछनीय काव्य-सौष्ठव है। 

सुन्दरम् या कि सुन्दरता के भावानुभाव को एक विशिष्ट भावबोध, सौन्दर्यबोध या Aesthetic Sense से अभिषिक्त किया जाता है। सुन्दरम् का सहज व्युत्पातिक अर्थायन करें तो मानना होगा कि ‘सुन्दरम्’ = ‘स + उ + न् + द + र + म्’ अर्थात् ‘सर्जनाशीलता का वह उन्मेष जो दकारशील वैराट्य से मण्डित होता है’ और ऐसे बोधानुबोध को कारित और विस्तारित करने में समर्थ भी होता है। भारतीय मनीषा में संक्षेप में यही विन्यास-परास है ‘सुन्दरम्’ या कि ‘सार्वसुन्दरम्’ का।

व्यवहार्यतया अपना काला-कलूटा असुन्दर लड़का भी माता को सुन्दर ही दिखता है जबकि अन्य लोगों को वह असुन्दर दिख सकता है। हिन्दी के रीतिकालीन कवि मानते हैं कि ”रूप रिझावन हारि है नैना हैं रिझवार।“ इसीलिए कहा जाता है कि ‘सुन्दरता’ देखने वाले की आँख में होती है। यह उक्ति कतिपय पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में उचित हो तो हो, किन्तु वास्तव में भारतीय मनीषा से यह स्वीकार्य नहीं है। कविवर माघ ने ‘क्षणे-क्षणे नित नवताम् उपैति’ रूप में रमणीयता का निकष प्रस्तावित किया है।

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘परिमल’ में अपना अभिमत प्रकट किया है कि- ”छायावादी सौन्दर्य-चेतना न तो रीतिकालीन मादक उत्तेजना है और न द्विवेदी युग की नीरसता, अपितु इस सौन्दर्य-चेतना में आन्तरिक आह्लाद की पारदर्शिता है, सृजन का वरदान है और हैं चेतना की चिन्मयताएँ।“ इस प्रकार, मादक उत्तेजना-प्रदानक को ‘भा + रतीय’ संचेतना ‘सुन्दर’ नहीं मानती, अपितु उस ‘सौन्दर्य’ को चेतना का वरदान बनाने की कामना अभीप्सित करती है।

डॉ॰ रामविलास शर्मा सौन्दर्यबोध को, सुन्दरता को, वस्तुगत इयत्ता के रूप में देखते हैं। डॉ॰ रामविलास शर्मा के अनुसार प्लेटो से लेकर हीगल तक यूरोप के अनेक प्रमुख दार्शनिक यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे हैं कि सौन्दर्य की सत्ता वस्तु से पृथक है। प्लेटो के लिए संसार की सुन्दर वस्तुएँ ‘परोक्ष सौन्दर्य-सत्ता का प्रतिबिम्ब मात्र हैं। ‘कला’ इस प्रतिबिम्ब का भी प्रतिबिम्ब है।  

कुल मिला कर कह सकते हैं कि भारतीय विद्वान् ‘सुन्दर’ होने (अर्थात् सुन्दरता के ‘बीइंग’) और सुन्दरता के बोध होने के बीइंग में अन्तर मानते हैं। वास्तव में स्थायी महत्त्व की कतिपय संवेदनापरक वांछाएँ हैं, जो श्रेष्ठ सुन्दरत्व की सामान्य अपेक्षाएँ मानी जाती है हमारे यहाँ। 

पश्चिमी धरा पर भौतिकवाद की प्रधानता होने से और आचार-विचार के सभी संस्तरों पर भौतिकतावाद हावी होने से ‘सौन्दर्य-बोध’ पर भरपूर बलाघात किया जाता है। वहाँ इतालवी विचारक बौमगार्टन की ‘ऐस्थेटिक्स’ के दो वाल्यूम प्रकाशित होने के समय से अब तक सौन्दर्य और सौन्दर्यबोध पर बहुत कुछ लिखा गया है, भले ही उनमें भारतीय दृष्टि से सारवान् बहुत कम हो। अधिकांश पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्री सौन्दर्य और सौन्दर्यानुभूति को दो अलग-अलग अस्मिताएँ मानते हैं। सूसान लैंगर इसको अभिव्यक्ति और प्रभाव के रूप में देखती हैं। नार्थप फ्राई कलाकृति को या कि कलाकार की कला को ‘सुन्दर’ मानने को तभी तैयार होते हैं, जब वह विशिष्ट हो। प्रसंगित विशिष्टताओं में सौन्दर्यपरकता, उदात्तता, निर्वैयक्तिकता और कलागत आनन्दप्रदायिकता आदि को स्थानित करते हैं पाश्चात्य विद्वान्; परन्तु अधिकांश पाश्चात्य विचारक सौन्दर्य के ‘क्या, क्यों, कैसे’ के विषय में ‘अपनी-अपनी ढपली अपना अपना राग’ अलापते दिखते हैं। 

और देखें--

भारतीय जनजीवन के प्रमुख वैचारिक अनुशासनों में ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अवधारणा कथ-अनकथ रूप में यहाँ सर्वत्र प्रयुक्त है। यथा-
धर्म-अध्यात्म जगत् में हम परमेश्वर की उपासना परम सत्य के रूप में, परमकल्याणकारी शिव के रूप में और सुन्दरता के परम आधान परम सुन्दर के स्वरूप में ही करते हैं। वहाँ आत्मा-परमात्मा, जीव, माया के सम्बन्धों की तलाश वाले चरम सत्य ‘ब्रह्म’ की तलाश ‘जीव-जगत् के सार्वसुन्दरम्’ के निमित्त ‘जीव-जगत् के कल्याणार्थ तद्गत शिवत्व के स्वरूप में की जाती है। 

भारतीय न्याय जगत् में वस्तुगत सत्य की तलाश सार्वसुन्दरम् या कि लोकसुन्दरम् की अभीप्सा में लोकशिवत्व के संस्थापनार्थ की जाती है। इस क्रम में लोकशिवत्व एवं लोकसुन्दरम् को आक्षेपित करने वाले कर्म की विवेचना और तद्गत विकृति के निवारणार्थ यथावश्यक दण्ड की भी घोषणा विशुद्ध नैयायिक प्रमा से करते हैं हमारे न्यायकर्त्ता। 

स्फुट रूप में भी सत्यम् या कि सत्य और शिवम् या कि शिवत्व और सुन्दरम् अर्थात् सार्वसुन्दरम् की प्रतिष्ठा भारतीय कला और साहित्य जगत् में सर्वत्र व्याप्त है। 

कला जगत् में सत्य का रूपांकन शिवत्व की उद्भावना के साथ सुन्दरम् या कि सार्वसुन्दरम् की अभीप्सा में रूपांकित करता है कलाकार। कला चाहे वास्तुकला, चित्रकला, काष्ठकला, मूर्तिकला, संगीत कला हो या कला का कोई अन्य अपररूप, सर्वत्र ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का समवेत रूपांकन ही अभीष्ट होता है कलाकार के लिए। 

साहित्य जगत् में देखें तो भारतीय मनीषा में साहित्य के निज के दर्शन एवं साहित्य के निज धर्म के परिप्रेक्ष्यों में मूलाधार सदृश महत्त्वपूर्ण है प्रत्यय ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’; जिसकी ओर हमारे अधिकांश विद्वानों ने अब तक समुचित ध्यान नहीं दिया है। वस्तुतः सत्यम् शिवम् सार्वसुन्दरम् से ही साहित्य के धर्म और दर्शन का क्या, क्यों, कैसे भी रूपायित किया जा सकता है। साहित्य का वस्तुनिष्ठ धर्म एवं दर्शन भी सुस्थापित करता है कि व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोभद्र, सत्त्वशील, शिवशील, नयशील, ऋतशील, उत्कर्षप्रदायी पथ को प्रशस्त करना ही ‘साहित्य का धर्म’ है। इसके निमित्त वस्तुनिष्ठ स्वरूप में सत्यम् सह शिवम् सह सार्वसुन्दरम् की सारस्वत अक्षराराधना साहित्यिकता के साथ करना अभीप्सित है। ‘लोकहिती अत्यन्तम्’ वाले सत् और चिदानन्दकारी मोहापहारी शिव एवं वाकानन्द से प्रगति करके प्रज्ञानन्द, उससे भी प्रगति करके ब्रह्मानन्द को साकार करने वाले सार्वसुन्दरम् की समवेत अक्षराराधना से ’सत् सह शिव सह सार्वसुन्दरम् के समवेत से और तद्गत महनीय सारस्वत तत्त्व से सत् + चित् + आनन्द का वस्तुनिष्ठ साक्षात्कार संभव है। वस्तुतः महनीय सारस्वत तत्त्व वाली नैतिकतावादी लोकहिती साहित्यिक संचेतना ज्यों-ज्यों विकसित होगी, त्यों-त्यों जीवात्मा के आत्मा के अन्यान्य आवरण (राग, द्वेष, वाला मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश आदि) क्रमशः विनष्ट होते जाएंगे; उसी समानुपात में  आत्मा का चैतन्य वाचाल होता जाएगा और उसी समानुपात में आत्मा के परमात्मा से साक्षात्कार की संभावना बलवती होती जाएगी। इस प्रकार अंततः परमात्मा या कि परब्रह्म या कि ब्रह्म का अभीप्सित साक्षात्कार और तद्गत एकाकारत्व संभव होता है। यह सम्भावना साहित्य-साधक की साधना की सान्द्रता के समानुपात पर निर्भर होगी। ध्वनिवादियों का ब्रह्मानन्द सहोदर वाले रस-सिद्धान्त से, विशेषकर आचार्य आनन्दवर्द्धन-प्रणीत शान्त रस की परिकल्पना से भारतीय साहित्य की भारतीय दर्शन से अन्तरंगता स्पष्ट है। भारतीय मनीषा साहित्य के सहित् भाव को, उसके समाज-हिती भाव-बोध को वस्तुतः सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के समवेत की सारस्वत भावानुभाव के साथ आक्षरिक आराधना के रूप में ही स्वीकारती है। भा+रतीय सह भारती+य मनस्विता के कवि, लेखक कथ-अनकथ रूप से ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की भावभूमि में साहित्यिक रचना निश्चित करते आए हैं। इस तरह इस प्रत्यय की सार्थकता हमारे साहित्य जगत् में अति महत्त्वशील है। हमारे साहित्य जगत् में कविवर माघ हों या रामायणम् के रचयिता वाल्मीकि या उषस् की सुन्दरता का गान करने वाले वेदकार या महाकवि कालिदास-- सभी सत् + शिव के साथ सुन्दरम् के समवेत के गायक हैं। 

सामान्य रूप में सत्य दर्शन का विषय है, वहीं, भारतीय मनीषा मानती है कि ‘शिव’ धर्म का अनुसंधान है ; ‘सुन्दर’ की प्रतिष्ठा कला का स्रोत है; औ....र सत्य के अवगाहन का उपक्रम होता है साहित्य। इस तरह साहित्य में तीनों एक साथ समुपस्थित होते हैं। अकारण नहीं कि कविवर सुमित्रानन्दन पंत लिखते हैं--

”वही प्रज्ञा का सत्यस्वरूप, हृदय में बनता प्रणय अपार।
लोचनों में लावण्य अनूप, लोकसेवा में शिव-अविकार।।“

ज्ञात हो कि शीर्षक समरूप होने के बावजूद कथ और कथ्य की दृष्टि से भिन्न धरातल पर आधृत बाबू गुलाबराय अपनी कृति ‘सिद्धान्त और अध्ययन’ में संगृहीत ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’ नाम्नी आलेख में लिखते हैं-  ” ‘हितम् सम्पादयति स साहित्यम्’ वाले साहित्य का ‘हितम्’ वा ‘शिवं’ वही है जो लोक (यहाँ लोक का अर्थ परलोक के विरोध में नहीं है ) को बनावे और लोक को बनाने का अर्थ है व्यक्तियों की भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों में सामंजस्य स्थापित कर उनको सुसंगठित और सुसम्पन्न एकता की ओर ले जाए। भेद में अभेद, यही सत्य का आदर्श है और यही शिव का मापदण्ड है।“  हमारे मनीषी इस बिन्दु पर प्रायः एकमत हैं कि काव्य में जो विश्वात्मा है, उस विश्वात्मा जो मंगल का, लोकमंगल का तत्त्व है वही शिव है। साहित्य में इसी शिवत्व का सम्पादन किया जाता है। हित सम्पादयति इति साहित्यम्। बाबू गुलाबराय मानते हैं कि वस्तुगत गुणों के ऐसे सामंजस्य को हम सौन्दर्य कह सकते हैं जो हमारे भावों में साम्य (समन्वय) उत्पन्न करके हमें प्रसन्नता प्रदान करें तथा हमें तन्मय कर दे। बाबू गुलाबराय यह भी मानते हैं कि सत्य ‘ज्ञान की अनेकता की एकता’ है। शिव ‘कर्मक्षेत्र की अनेकता की एकता का रूप’ है, सौन्दर्य ‘भावक्षेत्र के सार्वसुन्दरम् का सार्वहिती सामंजस्य’ है। 

वस्तुतः साहित्यिक काव्य में ‘असुन्दर’ का चित्रांकन भी प्रायः समेकित रहता है, वहाँ वे विकृतियों के विरोध में सकारात्मक संवेदना के जागरण से प्रकारान्तर से शिवत्व से, शिवत्व की सदिच्छा से ‘सुन्दरम्’ या कि सार्वसुन्दरम् की अभिलाषा से ही अभिलषित होते हैं। हमारे कविगण वे आदिकाल के सिद्ध समुदाय के कविगण हों, भक्तकविगण हों या छायावादी कविगण-- वे सभी सत्यशील आदर्श की संस्थापना हेतु लोकमंगल की प्रतिष्ठा सुन्दर कवित्व शैली में करते आए हैं। ”श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं“ या ”मुझको मेले में मिला चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम बोला नाम हिन्दुस्तान है“ जैसी काव्य-पंक्तियाँ कवि की सत्य समेकित शिववादी सुन्दरम् की सदिच्छा का ही प्रमाणक हैं। इस तरह हिन्दी जगत् में आद्यन्त अद्यतन सत् + शिव + सुन्दर की ही प्रतिष्ठा प्रायः सर्वत्र दृश्यमान है। 

जहाँ तक प्रत्यय ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ के पाश्चात्य होने का प्रश्न है, पुनः-पुनः कहना होगा कि यह सच होते हुए भी कि इसे पश्चिमी धरा पर सबसे पहले अरस्तू ने प्रयुक्त किया था; इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि अरस्तू ने इसे तत्कालीन भारतीय मनीषा से उधारित या आयातित किया हो। अरस्तू का कालखण्ड मात्र 2000 वर्ष पुराना है; जबकि ‘सच्चिदानन्द परमेश्वर’ का प्रत्यय हमारे यहाँ महाभारत युग के पूर्व से प्रचलित है। कहा जाता है कि अंग्रेजी साहित्य से प्रथमतः बांग्ला जगत् में इसे प्रयुक्त किया राजा मोहन राय ने। तदन्तर नोबुल विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने आ॰ क्षितिमोहन सेन की कृति की भूमिका में इस प्रत्यय का प्रयोग किया। उन्होंने लिखा- ”सत्य की पूजा सौन्दर्य में है, विष्णु की पूजा नारद की वीणा में है। विष्णु के सत्य के साथ शिव भी है। वीणा स्वयं सौन्दर्य का प्रतीक है। ........इसलिए तीनों ही कारणों का समन्वय हो जाता है। वहाँ से हिन्दी जगत् में इसे आयातित किया गया है।“ इस तरह श्री टैगोर के अनुसार यूरोपीय जगत् से बांग्ला जगत् में, तदन्तर बांग्ला से हिन्दी जगत् में ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का प्रत्यय आया है। ऐसे प्रकथन सत्य नहीं , तदेव, स्वीकार्य नहीं हैं। वास्तव में सच्चिदानन्द प्रसंग, श्रीमद्भागवत् गीता की उक्ति, शाक्त ग्रंथों आदि के आलोक में मानना होगा कि ‘सत्यम् + शिवम् + सुन्दरम्’ के स्फुट एवं समवेत सम्प्रयोग से कभी विहीन या विच्छिन्न नही रही है भारतीय मनीषा, जैसा कि इस आलेख में पूर्वतया वर्णित मिथकों से लेकर हमारे दर्शन जगत्, न्याय जगत्, कला और साहित्य जगत् के दृष्टान्त पुनः-पुनः प्रमाणित करते हैं कि ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अवधारणा भारतीय मनीषा का विशिष्ट अवदान है।

आधार ग्रंथ

- ईशादि नौ उपनिषद्: शांकरभाष्य
- ऋग्वेद भाग 1-4: श्री राम शर्मा आचार्य
-निबन्धों की दुनिया: डॉ॰ रामविलास शर्मा
- निबन्धों की दुनिया: रवीन्द्रनाथ टैगोर
- निबन्धों की दुनिया: अज्ञेय
- सिद्धान्त और अध्ययन: बाबू गुलाबराय 
- श्रीमद्भगवत गीता
- वाल्मीकि रामायण
- ‘रघुवंशम्’: महाकवि कालिदास
- किरातार्जुनीयम् : महाकवि भारवि

- विजय रंजन
  सम्पादक ‘अवध-अर्चना’/अधिवक्ता
  दूरभाष: 8874830492,  
  ई-मेल: ranjanvijay82@gmail.com    

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